Category: वन्दना गुप्ता
ना जाने कैसे रिवाज़ हैं निकलवाते हैं हम तारीखें कभी मुंडन की तो कभी ब्याह की कभी गृहप्रवेश की तो कभी शुभ लग्न की चिन्ता रहती है हमेशा सब …
जब सुन्न हो जाता है कोई अंग महसूस नहीं होता कुछ भी न पीड़ा न उसका अहसास बस कुछ ऐसी ही स्थिति में मेरी सोच मेरे ह्रदय के स्पंदन …
भुंजे तीतर सा मेरा मन वक्त की सलीब चढ़ता ही नहीं कोई आमरस जिह्वा पर स्वाद अंकित करता ही नहीं ये किन पैरहनों के मौसम हैं जिनमे …
मौत की नमाज़ पढ रहा है कोई कीकर के बीज बो रहा है कोई ये तो वक्त की गर्दिशें हैं बाकी वरना सु्कूँ की नीद कब सो रहा है …
सुनो कहाँ हो …………? मेरी सोच के जंगलों में देखो तो सही कितने खरपतवार उग आये हैं कभी तुमने ही तो इश्क के घंटे बजाये थे पहाड़ों के दालानों में सुनो …
पलायनवादिता के अंकुर फूट ही जाते हैं एक दिन जो बीज रोप दिए जाते हैं बचपन में ही हाँ ……….बचपन में जब कुछ कम ना कर सको तो छोड़ …
मुझे कहा गया बेटियों पर कुछ लिखो,कुछ कहो और मैं सोच में पड गयी क्या लिखूँ और कैसे लिखूँ इस सदी की या उस सदी की व्यथा कहो तो …
ओस में भीगी औरत औरत नही होती होती है तो उस वक्त सिर्फ़ एक नवांगना तरुणाई मे अलसाई कोई धवल धवल चाँदनी की किरण अपने प्रकाश से प्रकाशित करती …
जो पंछी अठखेलियाँ किया करता था कभी मुझमें रिदम भरा करता था जो कभी बिना संगीत के नृत्य किया करता था कभी वो मोहब्बत का पंछी आज धराशायी पड़ा …