Category: सुलोचना वर्मा
गर हवा का मज़हब होता और पानी की होती जात कहाँ पनप पाता फिर इन्सा मौत दे जाती मुसलसल मात जो समय का धर्म होता किसी बिरादरी की होती …
वो कैसी पूजा थी नाम संकल्प हि किया था कि जला बैठी स्वयं को हवन के अग्निकुण्ड में और वो प्रेम कलश जिसे तुमने मेरे वक्ष पर धरा था …
नही बुनती जाल इस शहर में अब मकड़ियाँ लगे हुए हैं जाले साज़िश के हर दीवार पर बिखर गये हैं रिश्ते, अपनो की ही साज़िशो से बस यादें टॅंगी …
शक्ति के उपासक हैं ये लोग यहाँ स्कंदमाता की पूजा होती है गणेश कार्तिक को भोग लगता है और अशोक सुंदरी फुट फुट रोती है चंदन नही, रक्त भरे …
टूटे दरख़्त ——— क्यूँ मायूस हो तुम टूटे दरख़्त क्या हुआ जो तुम्हारी टहनियों में पत्ते नहीं क्यूँ मन मलीन है तुम्हारा कि बहारों में नहीं लगते फूल तुम …
हे शीतन समीर ! तुम तनिक विराम ले लो दीपों का उत्सव आने को है अमावश्या की सघन कालिमा फिर से चहूं ओर छाने को है अवकाश पर होंगे …
भावनाओं को शब्दों से ही पढ़ लो क्यूँ व्याकरण के पीछे हो पड़े कब आम लोगों ने व्याकरण का अनुसरण किया कब अच्छे लगे लोगों को संबोधन ‘हे’, ‘अरे’ …
ये सर्व वीदित है चन्द्र किस प्रकार लील लिया है तुम्हारी अपरिमित आभा ने भूतल के अंधकार को क्यूँ प्रतीक्षारत हो रात्रि के यायावर के प्रतिपुष्टि की वो उनका …
मैं निशि की चंचल सरिता का प्रवाह मेरे अघोड़ तप की माया यदि प्रतीत होती है किसी रुदाली को शशि की आभा तो स्वीकार है मुझे ये संपर्क जाओ …
मेरी निशि की दीपशिखा कुछ इस प्रकार प्रतीक्षारत है दिनकर के एक दृष्टि की ज्यूँ बाँस पर टँगे हुए दीपक तकते हैं आकाश को पंचगंगा की घाट पर जानती …
कांतिहीन विवशता मे आशा की एक किरण बनकर ज़िंदगी के हाशिए पे लिखी गयी तस्वीर हो तुम जीवन के अंतिम क्षण मे साँसों की एक धार बनकर ज़िंदगी के …
शाश्वत नभ मे उँची उड़ान का, सपना मैने संजोया था आसमान वीरान नही था कुछ लोगो से परिचय भी था पर चीलो की बस्ती मे खुद को ही अकेला …
बादलों के बीच से चाँद है निकल आया चाँद की पहली किरण हृदय के धरातल पर उतरी विस्मित सी मेरी काया उस दरख़्त को है देख रही जिसे अंकुरित …
चूल्हे की आग में खुद को तपाती हुई बच्चे की ग़लतियाँ ममता में भुला रही है दूध रोटी से लेकर, मंदिर के घंटे तक स्नेह की चाशनी में, बचपन …
जीवन की आपाधापी में रुकने की इज़ाज़त नही चले जा रहे हैं और मंज़िल कोई नही घर से गाड़ी में निकलकर किसी ट्रेफिक सिग्नल पर रुकी और शामिल हो …
ये कैसा हूनर है तुम्हारा की बहते हुए को बचाकर सहारा देते हो और फिर बहा देते हो उसे उसी झरने में ये कहकर की वो इक नदी है …
तुम फासलों से गुज़र रहे हो पर तुम्हारी हर आहट दिल के दरवाजे पर दस्तक दे जाती है याद आ रहे हैं वो दिन जब तुम्हारा उत्सव मेरे दरकार …
मैं ध्वनि, तो तुम लय हो मैं जीवन, तो तुम भय हो मैं तिश्नगी, तो तुम मय हो मैं नींद, तो तुम शय हो मैं वृद्धि, तो तुम वय …
तुम्हे याद हो, ना हो जब हम पहली बार मिले थे जोरों की बारिश आई थी गुलमोहर के फूल खिले थे अजनबी मैं भी नही थी अपरिचित तुम ही …
मौन अडिग स्थिर रहकर अपना फ़र्ज़ निभाता है हाँ, तभी तो खड़ा हिमालय बाबा की याद दिलाता है गंभीर होकर भी चंचल निच्छल जब वो बहता है हाँ नदी …
जून की गर्म दोपहर में बरगद की छाँव पिता है शीतलहरी की रातों मे जलता सा अलाव पिता है भवसागर की तूफ़ानों में प्राण रक्षक नाव पिता है जीवन …
वो आज की सीता है अपना वर पाने को अब भी स्वय्म्वर रचाती है वन में ही नही रण में भी साथ निभाती है अपनी सीमाएँ खुद तय करती …
महादेव “महादेव” आजकल मौन हैं नित्य हलाहल पीते हैं संपूर्ण जगत विषैला जो हो गया है “नील कंठ” का पूरा वर्ण अब नीला हो गया है “रुद्र वीणा” अब …
मिट्टी के चूल्हे पर जलती गीली लकड़ी की खुशबू सांझ को तुलसी पर जलता दिया बाती शंख की ध्वनि और माँ की संध्या आरती मंदिर के घंटे का नाद …
बंद कमरे मे गूँजती खामोशी कई सिलवटें माथे पर और कुछ सीने पर भी दिल और दिमाग़ की प्रतिस्पर्धा चल रही है वो रेत जिन्हे हम पिछले मोड़ पर …