मिजाज़-ए-मैकदा..
*अजाब की तलब कभी रुआब की तलब.. साकी है बेवफा मगर शराब की तलब.. पीने के पिलाने के ‘शपा’ अब कहाँ रिवाज़.. मैकस की तिश्नगी में,शबाब की तलब.. खस्तगी के शिकवों को लेके कहाँ जाएँ.. मुंसिफ को इक पुख्ता,गवाह की तलब.. प्यालों के सवालों में जाती,घुलती सुराही.. अब शहरे-मैकदा को,जवाब की तलब.. रंगत गुलाबी मय की,कुछ बदली सी लगे.. मालिक-ए-मैखाना को रंगरेज़ की तलब.. इस दोहरे नशे से यार बचोगे कैसे.. रुखसार पे साकी के,नकाब की तलब.. तमन्ना बेहिसाब है,पैमाना-ए-दिल तंग.. पैमाइशों में खाना-ख़राब की तलब……(शर्मिष्ठा पाण्डेय)*