Category: रचना शर्मा
उजाले बेचे नहीं जाते न ही दान दिए जाते हैं ये तो समर्पण है मन की तलहटी से ह्रदय के शिखर तक संबंधों की बेल को पल्लवित करने का …
मेरा घर …. जिसकी दीवारें बाहें पसारें रहती हैं प्रतीक्षारत किसी आगंतुक के लिए जब भी कोई देता है दस्तक दरवाजे पर मेरा घर मुस्कुराकर ले लेता है उसे …
मेरा वतन आजाद है ,मुझको न आज़ादी मिली सर उठाकर उठाकर चल सकूं वो राह क्यूं न बन सकी मेरा ………. कितनी कलियों को खिज़ा खिलने से पहले खा …
ज़िन्दगी होती है अकालग्रस्त जब खुशियों की जमीं लगती है दरकने उत्साह के वृक्ष से झरने लगती हैं उम्मीद की पत्तियां रिश्तों की छाँव दबे पांव खिसक जाती है …
गुजरे लम्हों को फिर से, काश ! ढूँढकर ला पाती कर लेती कैद निगाहों में,गर एक झलक भी मिल पाती माटी की सोंधी खुशबु जब, आंगन को महकाती थी …
लम्हा लम्हा जोड़कर जो तसवीर बनी है वही तो जिन्दगी है और इस जिन्दगी का हर रंग मुझे अजीज है वह रंग हलका है कि गहरा… ये सवाल बेमानी …
कुछ तो मुझसे तू बोल सखी,अपने अधरों को खोल सखी चूनर ढके तन पर तेरे,प्रियतम ने कितने दाग दिए वो दाग मुझे तू दिखला दे,न अपने को तू रोक …
बेबसी उसकी सहेली हो गयी है, क्या करे! कि अब वो बूढ़ी हो गयी है। अब नहीं आती हैं चौखट पर उम्मीदें, उनसे उसकी दुश्मनी सी हो गयी है। …
इस घर में झांककर देखो जरा यहाँ बारिश आती है भिगोने खुद को धूप सेंकती है अपना बदन नींद हर रोज़ करती है जागरण और भूख ठहर गयी है …
बीते लम्हों के झुरमुट से झांकती यादें मासूम निगाहों से तकती हैं आज को मगर आज अपनी रफ़्तार से बढ़ जाता है आगे … छोड़ जाता है फिर से …
रोज देखती हूँ उसे बटोरते हुए ख्वाबों के टूटे टुकड़े फिर उन्हें सहेज कर रखते हुए उम्मीद के पिटारे में इंतज़ार है मुझे उस पल का जब ख्वाब पिटारे …
धूप .. क्यों न तुझे भर लूं अंजुरी में और बिखेर आऊँ उस तंग गली की सीलन भरी कोठरी में जहाँ बूढी आँखे झांक रही हैं फटे कम्बल से …