Category: जानकीवल्लभ शास्त्री
स्याह-सफ़ेद डालकर साए मेरा रंग पूछने आए ! मैं अपने में कोरा-सादा मेरा कोई नहीं इरादा ठोकर मर-मारकर तुमने बंजर उर में शूल उगाए । स्याह-सफ़ेद डालकर साए मेरा रंग …
सांध्यतारा क्यों निहारा जायेगा । और मुझसे मन न मारा जायेगा ॥ विकल पीर निकल पड़ी उर चीर कर, चाहती रुकना नहीं इस तीर पर, भेद, यों, मालूम है …
कुपथ कुपथ रथ दौड़ाता जो पथ निर्देशक वह है, लाज लजाती जिसकी कृति से धृति उपदेश वह है, मूर्त दंभ गढ़ने उठता है शील विनय परिभाषा, मृत्यू रक्तमुख से …
रंग लाए अंग चम्पई नई लता के धड़कन बन तरु को अपराधिन-सी ताके फड़क रही थी कोंपल आँखुओं से ढक के गुच्छे थे सोए टहनी से दब, थक के …
यह पीर पुरानी हो ! मत रहो हाय, मैं, जग में मेरी एक कहानी हो । मैं चलता चलूँ निरन्तर अन्तर में विश्वास भरे, इन सूखी-सूखी आँखों में, तेरी ही …
सब अपनी-अपनी कहते हैं! कोई न किसी की सुनता है, नाहक कोई सिर धुनता है, दिल बहलाने को चल फिर कर, फिर सब अपने में रहते हैं! सबके सिर …
मेरा नाम पुकार रहे तुम, अपना नाम छिपाने को ! सहज-सजा मैं साज तुम्हारा- दर्द बजा, जब भी झनकारा पुरस्कार देते हो मुझको, अपना काम छिपाने का ! मैं जब-जब जिस …
रुक गयी नाव जिस ठौर स्वयं, माझी, उसको मझधार न कह ! कायर जो बैठे आह भरे तूफानों की परवाह करे हाँ, तट तक जो पहुँचा न सका, चाहे तू …
क्या खाकर बौराए बादल? झुग्गी-झोंपड़ियाँ उजाड़ दीं कंचन-महल नहाए बादल! दूने सूने हुए घर लाल लुटे दृग में मोती भर निर्मलता नीलाम हो गयी घेर अंधेर मचाए बादल! जब …
दुख को सुमुख बनाओ, गाओ ! काली घटा छंटेगी कैसे ? रिमझिम-रिमझिम स्वर बरसाओ ! कौन सुने करुणा की वाणी ? दीन दृगों के आँसू पानी ! पर अगीत संगीत अभी भी, – इसका …
तन चला संग, पर प्राण रहे जाते हैं ! जिनको पाकर था बेसुध, मस्त हुआ मैं, उगते ही उगते, देखो, अस्त हुआ मैं, हूँ सौंप रहा, निष्ठुर ! न इन्हें ठुकराना, …
ज़िंदगी की कहानी रही अनकही ! दिन गुज़रते रहे, साँस चलती रही ! अर्थ क्या ? शब्द ही अनमने रह गए, कोष से जो खिंचे तो तने रह गए, वेदना अश्रु-पानी बनी, …
गुलशन न रहा, गुलचीं न रहा, रह गई कहानी फूलों की, महमह करती-सी वीरानी आख़िरी निशानी फूलों की । जब थे बहार पर, तब भी क्या हँस-हँस न टँगे …
ग़म न हो पास इसी से उदास मेरा मन । साँस चलती है, चिहुँक चेतता नहीं है तन ।। नींद ऐसी न किसी और को आई होगी, जाग कर …
केसर-कुंकुम का लहका दिगन्त है गंध की अनन्त वेदना वसन्त चीर उर न और धुंधलाए वन की ओ अनचीती बाँसुरी गीत या अतीत बुझे द्वीप-द्वीप का मोती अनबिंधा मुंदी-मुंदी …
खिंचता जाता तेज, तिमिर तनता, क्या फेरा अरे, सवेरा भी होगा या सदा अँधेरा ? रहे अँधेरा, ये समाधियाँ दिख जायेंगी – घास-पात पर शबनम से कुछ लिख जायेंगी ! कभी …
क्या वह भी अरमान तुम्हारा ? जो मेरे नयनों के सपने, जो मेरे प्राणों के अपने , दे-दे कर अभिशाप चले सब- क्या यह भी वरदान तुम्हारा ? खुली हवा में …
उतर रेत में, आक जवास भरे खेत में पागल बादल, शून्य गगन में ब्यर्थ मगन मंड्लाता है! इतराता इतना सूखे गर्जन-तर्जन पर, झूम झूम कर निर्जन में क्या गाता …
जनम-जनम की पहचानी वह तान कहाँ से आई ! किसने बाँसुरी बजाई अंग-अंग फूले कदंब साँस झकोरे झूले सूखी आँखों में यमुना की लोल लहर लहराई ! किसने बाँसुरी बजाई जटिल …
कितना निठुर यह उपहास ! जो अजाने ही गया, वह था मधुर मधुमास ! कितना निठुर यह उपहास !! अश्रु-‘कण’ कहकर जिसे मैंने बहाया हाय ! सूक्ष्म रूप धरे वही था – हृदयहारी …
ऐ वतन याद है किसने तुझे आज़ाद किया ? कैसे आबाद किया ? किस तरह बर्बाद किया ? कौन फ़रियाद सुनेगा, फलक नहीं अपना, किस निजामत ने तुझे शाद या नौशाद किया ? …