Category: धर्मवीर भारती
इस डगर पर मोह सारे तोड़ ले चुका कितने अपरिचित मोड़ पर मुझे लगता रहा हर बार कर रहा हूँ आइनों को पार दर्पणों में चल रहा हूँ मैं …
झुरमुट में दुपहरिया कुम्हलाई खोतों पर अँधियारी छाई पश्चिम की सुनहरी धुंधराई टीलों पर, तालों पर इक्के दुक्के अपने घर जाने वालों पर धीरे-धीरे उतरी शाम ! आँचल से छू …
आँजुरी भर धूप-सा मुझे पी लो! कण-कण मुझे जी लो! जितना हुआ हूँ मैं आज तक किसी का भी – बादल नहाई घाटियों का, पगडंडी का, अलसाई शामों का, …
बारिश दिन ढले की हरियाली-भीगी, बेबस, गुमसुम तुम हो और, और वही बलखाई मुद्रा कोमल शंखवाले गले की वही झुकी-मुँदी पलक सीपी में खाता हुआ पछाड़ बेज़बान समन्दर अन्दर …
आज-कल तमाम रात चांदनी जगाती है मुँह पर दे-दे छींटे अधखुले झरोखे से अन्दर आ जाती है दबे पाँव धोखे से माथा छू निंदिया उचटाती है बाहर ले जाती …
गोरी-गोरी सौंधी धरती-कारे-कारे बीज बदरा पानी दे ! क्यारी-क्यारी गूंज उठा संगीत बोने वालो ! नई फसल में बोओगे क्या चीज ? बदरा पानी दे ! मैं बोऊंगा बीर बहूटी, इन्द्रधनुष सतरंग नये …
बरसों के बाद उसी सूने- आँगन में जाकर चुपचाप खड़े होना रिसती-सी यादों से पिरा-पिरा उठना मन का कोना-कोना कोने से फिर उन्हीं सिसकियों का उठना फिर आकर …
घाट के रस्ते उस बँसवट से इक पीली-सी चिड़िया उसका कुछ अच्छा-सा नाम है ! मुझे पुकारे ! ताना मारे, भर आएँ, आँखड़ियाँ ! उन्मन, ये फागुन की शाम है ! घाट की …
तुम कितनी सुन्दर लगती हो जब तुम हो जाती हो उदास ! ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में सूने खँडहर के आसपास मदभरी चांदनी जगती हो ! मुँह पर ढँक लेती हो …
प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी बाँध देती है तुम्हारा मन, हमारा मन, फिर किसी अनजान आशीर्वाद में- डूबन मिलती मुझे राहत बड़ी ! प्रात सद्य:स्नात कन्धों पर बिखेरे केश आँसुओं …
ये शरद के चाँद-से उजले धुले-से पाँव, मेरी गोद में ! ये लहर पर नाचते ताज़े कमल की छाँव, मेरी गोद में ! दो बड़े मासूम बादल, देवताओं से लगाते दाँव, …
विदा देती एक दुबली बाँह सी यह मेड़ अंधेरे में छूटते चुपचाप बूढ़े पेड़ ख़त्म होने को ना आएगी कभी क्या एक उजड़ी माँग सी यह धूल धूसर राह? …
ये शामें, सब की शामें … जिनमें मैंने घबरा कर तुमको याद किया जिनमें प्यासी सीपी-सा भटका विकल हिया जाने किस आने वाले की प्रत्याशा में ये शामें क्या …
उत्तर नहीं हूँ मैं प्रश्न हूँ तुम्हारा ही ! नये-नये शब्दों में तुमने जो पूछा है बार-बार पर जिस पर सब के सब केवल निरुत्तर हैं प्रश्न हूँ तुम्हारा …
मैं क्या जिया ? मुझको जीवन ने जिया – बूँद-बूँद कर पिया, मुझको पीकर पथ पर ख़ाली प्याले-सा छोड़ दिया मैं क्या जला ? मुझको अग्नि ने छला – मैं …
चेक बुक हो पीली या लाल, दाम सिक्के हों या शोहरत – कह दो उनसे जो ख़रीदने आये हों तुम्हें हर भूखा आदमी बिकाऊ नहीं होगा है !
मैं रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ लेकिन मुझे फेंको मत ! क्या जाने कब इस दुरूह चक्रव्यूह में अक्षौहिणी सेनाओं को चुनौती देता हुआ कोई दुस्साहसी अभिमन्यु आकर …
बरसों के बाद उसीसूने- आँगन में जाकर चुपचाप खड़े होना रिसती-सी यादों से पिरा-पिरा उठना मन का कोना-कोना कोने से फिर उन्हीं सिसकियों का उठना फिर आकर बाँहों …
अपने हलके-फुलके उड़ते स्पर्शों से मुझको छू जाती है जार्जेट के पीले पल्ले-सी यह दोपहर नवम्बर की ! आयी गयी ऋतुएँ पर वर्षों से ऐसी दोपहर नहीं आयी जो …
दूर देश में किसी विदेशी गगन खंड के नीचे सोये होगे तुम किरनों के तीरों की शैय्या पर मानवता के तरुण रक्त से लिखा संदेशा पाकर मृत्यु देवताओं …
शाम: दो मनःस्थितियाँ एक: शाम है, मैं उदास हूँ शायद अजनबी लोग अभी कुछ आयें देखिए अनछुए हुए सम्पुट कौन मोती सहेजकर लायें कौन जाने कि लौटती बेला कौन-से …
क्योंकि …… क्योंकि सपना है अभी भी – इसलिए तलवार टूटे, अश्व घायल कोहरे डूबी दिशायें, कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध-धूमिल, किन्तु कायम युद्ध का संकल्प …
समापन कनुप्रिया (अंश) क्या तुम ने उस वेला मुझे बुलाया था कनु? लो, मैं सब छोड़-छाड़ कर आ गयी! इसी लिए तब मैं तुम में बूँद की तरह विलीन …
समुद्र-स्वप्न कनुप्रिया (अंश) जिस की शेषशय्या पर तुम्हारे साथ युगों-युगों तक क्रीड़ा की है आज उस समुद्र को मैंने स्वप्न में देखा कनु! लहरों के नीले अवगुण्ठन में जहाँ …
उसी आम के नीचे कनुप्रिया (अंश) उस तन्मयता में तुम्हारे वक्ष में मुँह छिपा कर लजाते हुए मैं ने जो-जो कहा था पता नहीं उस में कुछ अर्थ था …