Category: अनुपमा त्रिपाठी
अपने सागर में सिमटी … अपनी सीमाओं के संग …. करती है हिलोर …… मिटने को उठती है प्रत्येक उत्ताल लहर ….. क्यों बनाती है …स्वनिर्मित …. नित …
अँधेरे कमरे की खिड़की से- देख रही थी मैं– प्रकृति का करिश्मा….!! , व्योम को निर्निमेष निहारती- देख रही थी- रात के अंधरे को जाते हुए …
सुषुप्ति छाई ….गहरी थी निद्रा …. शीतस्वाप जैसा .. .. ….सीत निद्रा में था श्लथ मन ……..!! न स्वप्न कोई …..न कर्म कोई …न पारितोष …… अचल सा था …..मुस्कुराने का …
बेला हेमंत उषा की आई …..!! पनिहारिन मुस्काई … ओस झरी प्रेम भरी … रस गागर भर भर लाई ….!! चहुँ ओर जागृति छाई …. बेला उषा की आई …!! सर …
छवि मन भावे … नयन समावे .. सूरतिया पिया की … बन बन .. ढूँढूँ .. घन बन बिचरूं ….. धार बनी नदिया की ……. कठिन पंथ …
निर्मल निर्लेप नीला आकाश … देता है वो विस्तार ….. कि तरंगित हो जाती है कल्पना … नाद सी…….हो साकार …. अकस्मात जब ढक लेते हैं बादल … …
स्निग्ध उज्ज्वल चन्द्र ललाट पर ….. विस्तृत सुमुखी सयानी चन्द्रिका ….भुवन पर …. निखरी है स्निग्धता .. बिखरी है चन्द्रिका ……… पावस ऋतु की मधु बेला … बरस रहा …