Category: अलका सिन्हा
अबकी ऐसे फाग मनाओ दीवारों पर रंग लगाओ रंग भरी भीगी दीवारें महक उठें सोंधी दीवारें नरम पड़ी गीले रंगों से जहाँ-तहाँ टूटें दीवारें । दीवारें घर के भीतर …
सुबह की चाय की तरह दिन की शुरुआत से ही होने लगती है तुम्हारी तलब स्वर का आरोह सात फेरों के मंत्र-सा उचरने लगता है तुम्हारा नाम ज़रूरी- गैरज़रूरी …
पहले के गाँवों में हुआ करते थे भंडार-घर भरे रहते थे अन्न से, धान से कलसे डगरे में धरे रहते थे आलू और प्याज गेहूँ-चावल के बोरे और भूस …
नए वर्ष की पहली कविता का इंतज़ार करना जैसे उत्साह में भरकर सुबह-शाम नवजात शिशु के मसूढ़े पर दूध का पहला दाँत उँगली से टटोलना। मगर मायूस कर देते …
ज़िन्दगी को जिया मैंने इतना चौकस होकर जैसे कि नींद में भी रहती है सजग चढ़ती उम्र की लड़की कि कहीं उसके पैरों से चादर न उघड़ जाए ।
वृक्ष ने आवेश में भर लिया पत्तियों को अपनी बलिष्ठ बाँहों में बेतरह । पत्तियाँ लजाईं, सकुचाईं और हो गईं – गुलमोहर ।
ये कौन है जो मेरे साथ-साथ चलता है ये कौन है जो मेरी धड़कनों में बजता है मुस्कराता है मेरी बेचैनियों पर दिन-रात मुझसे लड़ता है । रोकता है …
कितना अप्राकृतिक लगता है आज के समय में कचनार पर कविता लिखना । दौड़ती-भागती ज़िंदगी के बीच अल्प-विराम, अर्द्ध-विराम की तरह सड़क के किनारे आ खड़े होते हैं कितने …
अभी तो मैंने रूप भी नहीं पाया था मेरा आकार भी नहीं गढ़ा गया था स्पन्दनहीन मैं महज़ माँस का एक लोथड़ा नहीं, इतना भी नहीं बस, लावा भर …
लिखी जा रही हैं कविताएँ अख़बार की ज़मीन पर । फड़फड़ा रहे हैं कहानियों के पन्ने पुस्तकालयों के रैक्स पर । खींसें निपोर रहे हैं श्रोता मंच के मसखरों …
ग्राहक को कपड़े देने से ठीक पहले तक कोई तुरपन, कोई बटन टाँकता ही रहता है दर्ज़ी । परीक्षक के पर्चा खींचने से ठीक पहले तक सही, ग़लत, कुछ …