Category: आभा
घर-घर खेलती हैं लडकियाँ पतियों की सलामती के लिए रखती हैं व्रत दीवारों पर रचती हैं साझी और एक दिन साझी की तरह लडकियाँ भी सिरा दी जाती हैं …
लोग कहते हैं कि बेटे को ज़िन्दगी दे दी मैंने पर उसके कई संगी नहीं रहे जिनकी बड़ी-बड़ी आँखें आज भी घूरती कहती हैं- आंटी, मैं भी कहानी लिखूंगी …
कभी कभी ऐसा क्यों लगता है कि सबकुछ निरर्थक है कि तमाम घरों में दुखों के अटूट रिश्ते पनपते हैं जहाँ मकडी भी अपना जाला नहीं बना पाती ये …
जाने कौन हो तुम यह तुम्हारी झलक है या कोई झील है जिसमें डूबी जा रही मैं
घृणा से टूटे हुए लोगो! दर्पण और अनास्था से असंतुष्ट महिलाओं को वक्तव्य न दो।
मोहित करती है वह तस्वीर जो बसी है रग-रग में डरती हूँ कि छू कर उसे मैली ना कर दूँ हरे पत्तों से घिरे गुलाब की तरह ख़ूबसूरत हो …
बचपन में पराई कहा फिर सुहागन अब विधवा ओह! किसी ने भी पुकारा नहीं नाम लेकर मेरे जन्म पर खूब रोई माँ मैं नवजात नहीं समझ पाई उन आँसुओं …
मेरी तकदीर पर वाहवाही लूटते हैं लोग पर अपने घ्रर में ही घूमती परछाई बनती जा रही मैं मैं ढूंढ रही पुरानी ख़ुशी पर मिलती हैं तोडती लहरें ख़ुद …
शादी का लाल जोडा पहनाया था माँ ने उसकी रंगत ठीक ही थी पर उसमें टँके सितारे उसकी रंगत ढँक रहे थे मुझे दिखी नहीं वहाँ मेरी खुशियाँ मुझ …