Category: तेज राम शर्मा
मैं फिर आऊँगा लौटकर और यहीं कहीँ समेट लूँगा बिखरी पँखुड़ियाँ कंटीली झाड़ियों में गुम हुई गेंद कब से यहीं कहीं सुबक रही होगी मेरे विस्थापित होने पर सुहागा …
बादल मन को दिये जो इंद्रधनुषी सपने आवेशित धरती पर काँपे बैंत-से जैसे भूकम्प में स्तंभ टूटे नदी बाँध से प्रवासी पक्षी-से उड़े दूर देश दर्शक-दीर्घा में अविराम करतल …
लंबी यात्रा के बाद आता है तुम्हारा पड़ाव तुम्हें उतारते हुए तुम्हें सौंपता हूँ तुम्हारे पंख दिगंत आकाश तुम्हारे सपने स्मरण करवाता हूँ तुम्हें तुम्हारा ठौर-ठिकाना आकाश के नीचे …
वसंत ऋतु है और अवकाश का दिन आज मैं बहुत कुछ बनना चाहता हूँ सबसे पहले सूरजमुखी बनूँगा हवा के संग हिलाता रहूँगा सिर सहस्र मुखों से पीऊँगा धूप …
सुबह पर्दा हटाता हूँ तो देखता हूँ कि चिनार के पत्ते झड़ चुके होते हैं सब के सब बाग उजड़ा-सा दिखता है पीर का-सा चोगा पहने एक मज़दूर चिनार …
साँप अपनी खाल छोड़ जाता है पीछे समय के साथ चलते हुए पर मैं चिपका हूँ झुर्रीदार और पुरानी समय के साथ न चल सकने वाली खाल से पुराने …
फासला कि पार ही नहीं होता हाथ से भाग्य-रेखा रहती है सदा गायब किसके पक्ष में घटित हो रहा है सब कुछ खतरनाक भीड़ कहाँ से उमड़ रही है? …
जब मैं वापसी की सोचता हूँ तो बहुत आगे निकल चुका होता हूँ अपनी नियति को बदलने में असमर्थ यात्रा पर मेरे पहले कदम के साथ-साथ हवा ने भी …
हमारे सारे के सारे दिन नष्ट नहीं हो जाते कहीं एक दिन बच निकलता है और जीवित रहता है हवा,पानी, धूप, तूफान,काल सब से लड़ता रहता है लड़ते-लड़ते दूर …
अँधेरे मुँह दुहती है वह गाय को अंतिम बूँद तक जैसे उसका लाडला चूस डालता है उसके स्तन चूल्हे पर आग की लपटो में बिखर जाते हैं मोती धुआँ …
बालक ने सपना देखा उड़ गया वह आकाश में पीठ से फिसला उसका बस्ता एक-एक कर आसमान से गिरी पुस्तकें और काँपियाँ देख कर मुस्कराया और उड़ता रहा फिर …
अन्न और जल की तरह ही मेरे ख़ून में मेरी हडडियों में घुल-मिल कर कहाँ लुप्त हो गए हैं वे सब आकाश बिना ओर–छोर का मैं समेट पाया हूँ …
गाँव के मंदिर प्राँगण में यहां जीर्ण-शीर्ण होते देवालय के सामने धूप और छाँव का नृत्य होता रहता है यहाँ स्लेट छत की झालर से लटके लकड़ी के झुमके …
माल रोड़ के उस छोर पर बैठता है फूल बेचने वाला अविरल बहती छोटी नदी के किनारों से ढूँढ लया है तरह-तरह के फूल हर शाम भीड़ उस को …
पता नहीं कब से मुझे बर्फ़ ढक़ी चोटियों से प्यार हो गया हिमालय की गोद में बर्फ़ की तहों के बीच मैं सुखद पड़ा रहना चाहता हूँ। पर बर्फ़ानी …
लम्बी अंधेरी सर्द रातों के बाद कितनी ही बार मैं धीर आश्वस्त हो चूल्हे के पास जाता और राख के ढेर में छुपे अँगारों को ढूँढ लेता था अनबुझे …
शांत घाटी के सन्नाटे को तोड़ता स्वच्छ आकाश से दूरदृष्टि वाला गरुड़ टूटता है जेट फाईटर की तरह और आ बैठता है मृत पशु के लोथ के पास अनंत …
कितना कठिन है माँ पर कविता लिखना क्योंकि जब स्मित सपनों में सोया होता है घर माँ कर चुकी होती है पार दुर्गम पहाड़ी पगडण्डियाँ और जब तुम आँख …