Category: तारा सिंह
मिटे धरा से ईर्ष्या, द्वेष, अनाचार, व्यभिचार जिंदा रहे जगत में, मानव के सुख हेतु प्रह्लाद का प्रतिरूप बन कर, प्रेम, प्रीति और प्यार बहती रहे, धरा पर नव …
हृदय मिले तो मिलते रहना अच्छा है वक्त के संग – संग चलते रहना अच्छा है ग़म का दरिया अगर ज़िन्दगी को समझो धार के संग – संग बहते …
मैं हूँ वह अभागा , जिसने देखा न कभी अपने जीवन पटल पर सुख का सबेरा हृदय सागर भरा रहा , अपने ही दृग जल से पाया न किस्मत …
सड़कें ख़ून से लाल हुईं, हुआ कुछ भी नहीं इनसानियत शरम-सार हुई, हुआ कुछ भी नहीं हर तरफ़ बम के धमाके हैं, चीख है, आगजनी है मगर सितमगर को …
जीवन की विरक्ति क बोझ ढोते – ढोते जब जिंदगी थक जाती है तब यही क्षोभ अंतरतम का ताप बनकर सदियों से जल रहे होम की ज्वाला – सा, …
मेरे नयनों से पीड़ा छलकती, मदिरा -सी प्राणों से लिपटी रहती सुरभित चंदन -सी वह ज्वाल जिसे छूकर मेरा स्वप्न जला लगती सगही – सी , ढाल- ढालकर अंगारे …
मनुज सोचता , हवा में जो झूल रहा स्वर्ग जलद जाल में उलझ रहे कुंतल – सा जीवन का ताप मिटाने कब उतरेगा,धरती पर कब टूटेगी वहाँ के सुधा …
जब तक तुम सिंधु, विन्ध्य , हिमालय बन मेरे साथ रहे तब तक भूत ,वर्तमान , भविष्य सभी मेरे साथ रहे हृदय – उर रखना जो चाहता था कभी …
यह कैसी होली, कैसी दीवाली, कैसा यह त्योहार लोग घुस आए हैं एक दूजे के घर लेकर तलवार मजहब के नाम पर हो रहा है मुर्दों का व्यापार यह …
मोहब्बत में अश्क़ की कीमत कभी कमती नहीं अँधेरे में रहकर भी रोशनी कभी मरती नहीं नज़रों का यह धोखा है, वरना कहीं आसमां से धरती कभी मिलती नहीं …
मोहब्बत के जज़्बे फ़ना हो गये मेरे दोस्त क्या से तुम क्या हो गये कभी आरज़ू थी, निकले दम तुम्हारा मेरे दर के आगे, उसके क्या हो गये कहते …
मैं काला तो हूँ, आप जितना उतना नहीं झूठा भी हूँ, आप जितना उतना नहीं हौसले भी बुलंद हैं मेरे, आसमां को छू लूँ, आप जितना उतना नहीं मैं …
मेरी आँखों में किरदार नजर आता है रँगे फलक यार का दीदार नजर आता है पर्वत जैसी रात कटी कैसे पूछो मत आसमाँ फूलों का तरफदार नजर आता …
बैठो न अभी पास मेरे थोड़ी दूर ही रहो खड़े मेरा प्रियतम आया है दूर देश से बावन साल बाद कैसे कह दूँ कि अभी धीर धरो शशि – …
मुसलमान कहता मैं उसका हूँ हिन्दू कहता मैं उसका हूँ या ख़ुदा तुम बता क्यों नहीं देते आखिर हिस्सा मैं किसका हूँ फ़लक में फँसी है जान मेरी इन्सान …
सुनते ही कागा की कर्त्तव्य पुकार दूर स्मृति के क्षितिज में चित्रित- सा हर्ष -शोक के बीते जहाँ वर्ष क्षण मेरा , मुझे मेरा वह गाँव याद आ गया …
माँ मुझको धरा पर छोडकर आज अकेला तुम तो चली गई पिताश्री के पास , स्वर्ग को अब तो तुम नीचे, धरा पर उतर नहीं सकती मैं आ रही …
अनायास आज भी यह मन- पंछी उड़कर वहाँ पहुँच जाता है जहाँ कभी इच्छा और समाधान दोनो का अद्भुत आलाप हुआ था माँ के आँचल को पकड़कर आँगन बीच …
भीड़ भरी सड़कें सूनी – सी लगती है दूरी दर्पण से दुगनी सी लगती है मेरे घर में पहले जैसा सब कुछ है फिर भी कोई चीज गुमी …
बैठ गया है, मेरे दिल में बनकर कोई तांत्रिक जाने कौन अशुभ घड़ी थी, वह जो मैंने किया उसको आमंत्रित एक अनगढ़ा पत्थर – सा पड़ा हुआ था, सड़क …
कोहरे में लिपटा इस धरा गर्त के अतल से निकलकर , असंख्य दुख , विपदाएं , शत -शत भुज फैलाए , अग्नि – ज्वाल की लपटों सी अँगराई लेती …
मैं जिस प्रियतम को अपनी पलकों पर बिठाकर रखती आई, सयत्न आज आयेंगे वो, इसमें जरा भी नहीं वहम तन कुसुम विकसित होने लगा है लगता है, आ रहा …
निस्तब्धता से आती आवाज अब चली आओ तुम मेरे पास परिधि-परिधि में घूमता हूँ मैं गंध – गात्र में रहता हूँ मैं हवाओं की पटि उठाकर, जीर्ण का शीघ्र …
दुनिया के इस द्यूत क्रीड़ा- गृह में मामा शकुनि के चतुर- पास में परम-पूज्य पितामह हैं मौजूद सिंहासन पर बैठी गांधारी सी सासें भी हैं, जो स्वयं बाँध रक्खी …
जिसके अभिवादनों की गूँज , सृष्टि के सहस्त्रों आननों की रूप -रेखाओं में गूँजते हैं जो स्वयं प्रकृति का समानान्तर , सुंदर है जो स्वयं खड़ा होकर निहारता और …