Category: शिवेन्द्र श्रीवास्तव
दुनिया से छिप कर गली वाले नीम पर आने का वादा तो करो वो नीम कड़वा ही सही पर गवाह है तेरी मेरी मुलाकातों का कुछ अमर गीतों और बेपनाह मुहब्बत …
भटकते थे महफिलों की शामें बनकर कहीं कह्कशे तो कही ग़ज़ल बनकर कहीं बारिश हुई पड़ी धूप कहीं मौसम के हो लिए हम नमी बनकर तुम क्या मिले जैसे ठिकाना मिल …
मिले हैं जब से तुमसे कदम हर बस्ती गा रही रही है , हर रस्ता हंस रहा है मिले हो जब से तुम हमदम हर एक शख्स बाराती है …
आओ कुछ ऐसा करें की ना ज़मीन रहे ना आसमान रहे जिस तलक नज़र गुज़रे बस अपने कदमों के निशाँ रहें प्यार अपना अमर हो यह अरमान नहीं पर …
तुम न आये तो तुम्हारी यादों से मन बहला लिया कागज़ के उन टुकड़ों को फिर दिल से लगा लिया कशिश कहीं शोला न बन जाये इस हसीं रात …
सदियों के इंतज़ार की सज़ा क्यूँ सुनाई तुझे क्या खबर मेरी जान पर बन आई पायल की लडियां अब रूठने लगी है सब्र की हदें अब टूटने लगी हैं डसने …
अगर इश्क खता है तो खता ही सही चलो एक बार यह भी कर के देखते हैं प्यार अमर यह सुनते हैं हम किताबों में चलो एक बार संग …
रुकना न पथिक शूल रक्त राह हो या घोर अन्धकार हो काल तम की विनाशकारी चल पड़ी बयार हो चाहे शेषनाग की प्रय्लान्कारी फुंकार हो या किसी से विरह की वेदना की पुकार हो अश्रु छूटे सांस टूटे रूठा सारा संसार हो बलिदान …
जिन राहों पर कभी मेहके थे भीगे गजरे शोख हुईं थीं तुम्हारी अदाएं मचलकर जुड़ीं थीं दो रूह इबादत में मोहब्बत की पाकीज़ा हुई थीं जहां वफायें संभलकर….. पड़े हैं वे चाहत के फूल वहां आज भी… …
चौराहों पर मिलते नहीं हैं वे चेहरे ठकुराइन के घर पर रातों के पेहरे वे गुड के शरबत और जामुन की बाली वो मुन्ना का घर और कल्लू की साली वो मखमली लोरी …
अभी तो ज़माना हुआ है दीवाना अभी तो है रौशन हैं जलवे तुम्हारे बेसाख्ता भटकेंगे यह पाँव जिधर भी घरोंदें खिलेंगे बनेंगे चौबारे अभी तो खिली है धूप बेपर्दा अभी तो …
साहस जब लगी अमावस खीजने और लगे पात सब झरने उफान लहरों का जब लगा शौर्य पूछने तिनका बन बन लगे घोंसले टूटने डालियाँ चर्मरायीं और लगे प्राण सूखने तभी चिड़िया की एक बच्ची ने दम भरा और लगी अपने नन्हे पंखों से उड़ना सीखने….. जब शैवालों की चादर से लगा तालाब भरने …
कहीं तुम बज रहीं हैं शेहनाइयां सारी धरा पर मधुर-मधुर, कहीं तुम पैरों को पायल पहनाय तो नहीं बैठी चल रहा है कोई हमदम बन कर इन कठिन राहों …
बस तुझे देख कर… तुम्हारी साँसों से बसंत महक उठी और हाथों की हीना दमक उठी शर्म सिमट कर हुई पाहुन और काजल की कोर छलक उठी यौवन ने मचलना छोड़ दिया …
हम तो हैं खानाबदोश,अपने लिए अपना क्या बेगाना क्या.. किस्से क्या फ़साना क्या…. सुबह हुई पनघट पर अपनी सोना क्या बिछाना क्या…. अंगडाई झरनों पर तोड़ी ऊँघना क्या उठाना …
कांच की हरी चूड़ियों से लिपटी सावन के मेले की वह रातरानी मौसम को सुहागिन कर गयी जिसकी हंसी जैसे कमल पर पहली ओस का पानी वह हंसी सलमा …
कहीं छलक न जाएँ इन आंसुओं की डोली सुन ले न ज़माना इन सिसकियों को हो ना जाए गीली कहीं बचपन की ठिठोली नज़र न लग जाए कहीं इन …