Category: सत्येन्द्र कात्यायन ‘सत्या’
दूर क्षितिज में ढूंढ रही हूँअपने अनजाने प्रियतम कोदूर क्षितिज को देख रही हूँपाने विस्तार स्वयं काछाई घटाओ संगखेल रहा चाँद लुका छुपीदूर क्षितिज तक ले जायेगीबहते बहते नाव …
जश्न-ए-सैफई जश्न-ए-सैफई मना रहा है वो ज़ख्म ताजा है, जला रहा है वो रोते-बिलखते चेहरे उसको नहीं पसंद ठुमको पें , मस्ती के ठहाके लगा रहा है वो लाखों …
बहनो का सिंदूर छीना है माताओ का लाल ऐ वैरी तू कायर बन छिप छिप करता वार लडना है तो मैदानों में खुले आम आ कर के देख चीर …
नेता और हमारी पीडाएँ खंडित होगी स्वर मौलिकता तपस्वी भी तप छोड रहे इस भारत भू पर अब प्रतिपल मानव अपना दम तोड रहें सहता है क्या सहते रहता …
भगवान तूने जुल्म का सैलाब बनाया इंसान बनाया, मगर क्यूं ये बनाया? न था कभी जमीं पे जब जुल्म का निशां इंसान ने ही फैलाया इसको दिशा-दिशा अपनों को …
खेतों की काली मिट्टी मिट्टी को आकार देता किसान क्यारियां बना रहा हाथों में लिए फावड़े से धरती का श्रृंगार कर रहा कहीं लम्बी लम्बी क्यारियां कहीं चैकोर मेढ …
आँख बंद की , ढूंढने लगा डूबने लगा – गहरे और गहरे कभी रोशनी कभी घुप अंधेरा कभी तेजधारा झरने सरीखी …….. भीगकर और गहरे में उतर जाता नहीं …
तबाही तबाह होने से पहले भीतर की चुभन लगी सिमटने गिडगिडाती आत्मा …. परखच्चो सा ढांचा चाहने लगा जिन्दगी मौत सही पर तबाही नहीं टूटते फांसलों के कुछ खण्डहर …
फूल मुरझा रहें लौट अब तो ये निर्जन पथ होने वाला क्यूं खडा खामोश तेरा कुछ तो खोने वाला हाँ, बना था तू ही उस दिन सह पथिक मैं …
ओ! समय ओ! समय के बदले चेहरे क्रूरता में सना हुआ लडा हर कौम को ओ! दुर्भाग्य के जन्मदाता भीड में तू चीरता चला दरिंदगी की कहानी लिखी तूने …
भले लोगों का इस शहर में कबसे आना जाना है? सूनी सड़के, टूटी राहें लगता सब विराना है छुप जाते हैं चलते चलते काली परछाई से जो आज तो …
स्वयं से छल न होगा ! रीत को ही प्रीत कहना क्या स्वयं से छल न होगा मन में उठते उस बवंडर को चाहकर गर रोक ले तो मन …