Category: संजय कुमार शांडिल्य
मेरे हिस्से का कागज गूंथा कलम बनी स्याही घूली । धरती छिटकी आसमान तना सागर लहराया । मेरे हिस्से का बारूद सुलगा लोहा पिघला लहू गरमाया मुझे खबर नहीं …
पानियों और पर्वतों पर लोग समंदर और रेगिस्तानों में लोग पानियों को झाँक रहे हैं पर्वतों को ताक रहे हैं समंदर को निरख रहे हैं रेगिस्तान से प्यार कर …
तानाशाह के खखारने से नहीं डरती उसके गुण गाने वाले सबसे बुरे दिनों की कहानियाँ सुनाते हैं और थक जाते हैं । हमारा जीवन दिन भर एक यातना शिविर …
खिले हुए उङहूल के फूलों पर इसी आसमान के नीचे ठहरे हुए हैं ओस के कतरे ये तुम्हें नहीं दिखेंगे जूतों में ठहरे श्रम के घंटे जहां पाँव उतरा …
साँप केंचुल छोङ चुका है और जोड़े में है मौसम से विदा होने को है बरसात । हलवाहे श्रम की थकान मिटा रहे हैं गा कर बची रह गई …
वह अपने लंबे बालों को छाँट लेती है पॄथ्वी से दूरी बना लेने का यह उसका तरीका है । उसे अपने रोजानामचे में शामिल करना है आकाश के सितारों …
मेरे पिता को याद हैं चमङे के बेल्ट से बँधी ये घंटियाँ जब दूर से सुनाई पङती दादा जी पानी मिलाते नाद में जान जाते गोला बैल लौटते हुए …
मुझे लिख रही है एक डरी हुई कविता जो महाजन के क्रुर पंजियों सी गिर रही है । मैं एक मनुष्य हूँ कविता के हाथों लिखे जाने से इन्कार …