Category: रविशंकर पाण्डेय
हवा ऐसी चलीः सुधि का तरल लगा हिलोर भरने, कुछ अप्रत्याशित घटा जो लगा मन को- विभोर करने! बंद सीमित दायरे में तेरे अंधियारे, उंजेरे कसमसाने लगे, उद्यत- तोड़ने …
ये अपने बेहद अपने पल क्यों इतने बेगाने बीते! एड़ी से चोटी तक कैसा टंगा हुआ है एक अपरिचय दस्तक देता दरवाजों पर शंकाओं , संदेहों का भय भीड़ …
हम धरती के टूटे तारे, अम्बर अवनी से टूटे तो क्षितिज भला-क्यों कर स्वीकारे! घर-परिवार, न रिश्ते नाते सब हैं , सूरत से कतराते घर में ही जब …
हम अगस्त्य के वंशज ठहरे- खारे आँसू पीते, रोज सिसकियों- मर मिटते हैं और ठहाकों जीते! हम जंगल के परिजात हैं हम कांटों मे हंसते जीवन हुआ कसौटी खुद …
दिन गुजरते दबे पाँवों चोर जैसे बीतती चुपचाप तारीखें सुस्त कदमों बीतते इस दौर से हम भला सीखें तो क्या सीखें? कांच की किरचों सरीखे टूटकर बिखरती हैं …
तन रंगाये मन रंगाये, लाल पीले हरे रंगो में- रंगे दिन लौट आये! तरल मौसम की सरल संवेदना पा अधमरा दिन जी उठा फिर से विचारा, शीत से …
दिन गाढ़े के आये अगहन बीते,बड़े सुभीते माघ-पूस सर छाये। दिन गाढ़े के आये!! जूँ न रेंगती, रातों पर, दिन हिरन चौकडी जाता। पाले का, मारा सूरज मौसम के,पाँव …
गहराता है एक कुहासा सूखे खेतों , भूखे गाँवों , तरकोल रंगकर सूरज पर प्रखर-प्रकाशित, हैं उल्कायें, सम्भावी, इतिहास बाँचकर सिसके गीत, मर्सिया गायें, बाँध गयी, विस्तार गगन का- …
डूबी -डूबी साँझ ढले जब गोधूलि बेला धिर आये, भूले गीतों के कदमों पर थकी राह तब घर को आये! गुमसुम धुआँ, लकीर गया है टूटे दरबों के पाखों …
सरस सुधियाँ लौटती पनिहारिनों सी तृषित ये संवेदना के तंतु मेरे आज बौराया हुआ मन तोड़ देगा कसमसाती बंदिशों के तंग घेरे ! चाह तेरी जमीं चेतन ऊतकों में …
अफवाहों की धुंध घनी है डूबी सभी दिशायें हैं, धुआँ– धुआँ से इस मौसम की शातिर बहुत हवायें हैं! स्याह सफेद न समझ रहा है क्या झूठा क्या …