Category: निर्मल आनन्द
चिड़ियों से पहले उठते बाबा उनसे पहले उठ जाती है उनकी खाँसी उठते ही करते हैं धरती को प्रणाम फिर रखते हैं पाँव धरती पर फिर जागती हैं नींद …
जल्दबाज़ी में छूट जाता है कुछ न कुछ कुछ न कुछ हो जती हैं ग़लतियाँ हड़बड़ी में पत्र लिखते हुए नहीं रहती चित्रकार के चित्र में सफ़ाई कहीं फीके …
महीने-भर से बुन रहे हैं दादा पटसन के रेशो को अब वे आटेंगे ढेरा से हफ़्ते भर फिर तैयार होंगे रस्सी के कई गोल गुढ़ुवे इन्हीं रस्सियों से बनाएंगे …
प्रदीप के लिए आज कुछ नहीं दे पाया दोस्त को जन्मदिन पर मुबारकबाद के सिवाय रहा साथ दिन भर पर खिन्न मन कहीं और भटकता रहा खाली जेबों को …
चमक रहे हैं हमारे स्वागत में दिन के नए पन्ने इन्हीं में लिखनी है हमें अपनी कहानियाँ देना है अपना बयान कि इन्हें बचना है आग की लपटों से …
चिलचिलाती धूप में कहाँ से लौट रहे हो, दोस्त! नंगे पाँव, झुलसा चेहरा लिए लो ठंडा पानी पियो कहाँ थे इतने दिन, क्या किया बढ़ गई है दाढ़ी आँखें …
बहुत धीरे-धीरे बीतता है महीने का आख़िरी सप्ताह डबरों की तरह खाली हो जाते हैं सामानों के सारे डिब्बे घर के दरवाज़े से इन्हीं दिनों लौटना पड़ता है भिखारियों …
यह बीजों की यात्रा का मौसम है पक कर फूट रहे हैं सेमल रेशम की तरह मुलायम बगुलों से झक्क सफ़ेद पंख लिए हवा में तैर रहे हैं बीज …
थोड़ी नमी थोड़ी-सी धूप थोड़ी हवा और अंगुल-भर ज़मीन चाहिए मुझे उगने के लिए थोड़ा खाद थोड़ा पानी और निगरानी चाहिए मुझे बढ़ने के लिए मैं रसदार फल के …
वे तारों से नापते हैं रात का समय काम से रास्ते की दूरी और कड़कड़ाती ठंड में निकल पड़ते हैं बैलगाड़ियाँ लिए खेतों की ओर जाग जाते हैं खेत …
कोसों दूर से चलकर आए पिता पावस के इन दिनों में भीगते हुए बहुत इंतज़ार के बाद जैसे आया हो वसंत उदास पतझड़ में सुनाते रहे पिता गाँव का …
साँझ घिरते ही चिड़ियों की तरह पंख पसारे आते हैं स्वप्न और अंधेरा घिरने के बाद जुगनुओं में बदल जाते हैं रात भर जगमगाता रहता है नींद का काला …
उठ रहा है धुँआ गोरसी में सुलग रहे हैं कंडे भीग रहे हैं तसले में पलास के सूखे पत्ते माँ गूंध रही है आटा कंडे जब लाल हो जाएंगे …
मछली सिर्फ़ चारा देखती है चारे में छुपा काँटा नहीं नहीं देखती उस महीन डोर को जिससे बंधा है चारा और न ही उस डंडी को जिससे बंधी है …
पिता तुम्हें संधि स्वीकार नहीं तुम्हारा युद्ध कब समाप्त होगा तुम्हारे झोले से निकाल लिया है किसी ने अमन की पुड़िया को मैं जानता हूँ अकबर-राणाँ जैसा नहीं होगा …
यह काँसे का गिलास जिस पर लिखा है पिता का नाम दूर से चमकता है धूप में जब रख देती है माँ माँजने के बाद बर्तनों के बीच गिलास …
सूरज की तेज़ होती किरणों के साथ तप रहे हैं बालू के कण गर्म हो रही है हवा बदल र्हे हैं वृक्षों के चहरों के रंग और वक़्त की …
इस बार कुछ नहीं बदला वसंत में न बाबा का सलूखा न गुड़िया की फ़्राक न माँ की साड़ी सिर्फ़ बदली सरकार बदले राजनेता ज्यों की त्यों रही पुरानी …