Category: नीरज दइया
मैं मुक्त नहीं हुआ ओ मेरे पिता ! मैंने दी तुम्हें अग्नि और राख हुए तुम तुम्हें गंगा-प्रवाहित कर के भी मैं मुक्त नहीं हुआ ओ मेरे पिता ! नहीं रखी …
मैं कोटगेट से अनेक बार निकला पिता भी निकले थे पर नहीं लिखी कोई कविता कोटगेट की । कविता में सिर्फ कोटगेट का नाम आने से नहीं होती कविता …
शब्दों के नहीं होती है आंख कवि के ! जानते हैं आप कवि देखता है सपना कविता में कविता का ।
राजकुमारी ने देखा अपनी छत से चाँद चाँद ने भी देखा होगा उसे चाँद ने भी सोचा होगा किसी कवि जैसा उसे देख कर पर चाँद ने चाँद तो …
राजकुमारी ने बताए अपने महल के एक के बाद एक बहुत सारे रहस्य ! वह गुप्त रास्ता जो खोल देता सारे रहस्य वह वहाँ आकर रूकी और रूकी रही नहीं …
वह दिन भी आया जब पूरा हुआ व्रत किया था इंतज़ार इस दिन का गिन-गिन कर दिन राजकुमारी ! क्या अब भी गिनने ही हैं दिन-दिन लेकिन कब तक ?
जानता था कवि राजकुमारी का प्यार वह नहीं है जानता था कवि इस का अंत- कल्पनाओं के टूटे पंख कुछ बेतरतीब चित्र बहुत उदास रंग घायल सपने और खत्म …
प्यार में एक बार फिसलने के बाद बहुत संभल-संभल कर चलती है राजकुमारी रास्ता लम्बा है जाने कब, कहाँ होगा पूरा नहीं जानती राजकुमारी वह तो बस निकल पड़ी …
किया ही नहीं जीवन में कभी नाप-तौल। अब क्या करूँगा ? मैंने दिया जितनी चाह थी । राजकुमारी तुमने दिया बस उतना ही लिया- मैंने तुम्हारा प्रेम ! बाकी प्रेम जो …
जिस किसी से हुआ हो प्रेम यदि वह प्रेम है तो क्या कम होती है वह- किसी राजकुमारी से ?
दोहरी जिंदगी जीने को श्रापित है राजकुमारी चलता है निरंतर उस के भीतर युद्ध युद्ध-विराम के समय वह सोचती है- हाँ यह ठीक है और जैसे ही आगे बढ़ाती …
वह जा रही थी अपने घर बैठ कर रिक्शा में लगी- राजकुमारी-सी ! मैंने कुछ नहीं किया मैं जल्दी में था । बस खुशी छ्लकी अपने आप । उसने भी …
क्या बतियाना होता है सिर्फ शब्दों से ? शब्द कहां व्यक्त कर पाते हैं- सभी अभिव्यक्तियां । अगर होती शक्ति शब्दों में मैं बता देता- हमने क्या बात की बिना …
जीवन में हमारे आता है प्रेम बसंत की तरह और प्रेम ही लाता है- बसंत वर्ष में कुछ खास दिन होते हैं- जब होता है प्रेम । उदासी को …
किसी शेर की तरह दहाड़ता नहीं प्रेम वह पुकारता है मोर की तरह मनुहार करता वह पुकार ही सकता है जैसे मैं पुकार रहा हूँ तुम्हें नज़रें चुरा के …
बिना खूंटियों के टंगे हैं सपने जगह-जगह ! आंख की परिधि से परे नहीं है एक भी सपना !
तुम्हारे भीतर और भीतर उतरने की चाह अब भी जिंदा है कब तक रहोगी किनारों से लिपटी तुम एक दिन तुम्हें जब छोड़ कर किनारे बीच भंवर में आना …
उस सागर में डूबने की चाह लिए मेरा मन आज बेचैन है जानता हूँ चैन उसे भी नहीं मगर वह सीमा में बंधी है एक बार बस एक बार …
वैसे तो वह चुप ही रहती है कहती कुछ भी नहीं समझने वाले समझ जाते हैं उस के दुख में उसे बहलाते हैं फुसलाते हैं और वह पगली बहल …
दिन में होती है बहुत चहल पहल गुड़िया का मन बहल ही जाता है रात में अकेली तारे गिनती है कभी डालती है डोरे चाँद पर !
उसने कहा- किया जा सकता है उस से सिर्फ प्यार बिना किसी उम्मीद के प्यार पर नहीं कोई रोक या प्रतिबंध सब की प्यारी है- वह गुड़िया ।
जिस गुड़िया से था प्यार बचपन में वह कितना निष्पाप था उसे दिन-रात चूमना और बार-बार गले लगाना कितना बेदाग था अब पाप में दाग गिन भी नहीं पाता !
चेहरे पर नहीं दुख है भीतर विशाल तुम्हें ब्याह के छोड़ दिया उसने रोती भी नहीं गुड़िया हो तुम ! भीतर से गीली हो फिर क्यों हो बाहर एकदम सूखी ?
यहाँ की नहीं तुम आई हो किसी लोक से सुंदर-सी बन गुड़िया जब भी देखता हूँ- पाता हूँ तुम्हें मासूम-सी एक गुड़िया अब बचपन जा चुका कहाँ छुपा सकता …
मेरा चूमना और तुम्हारा खुद को यूँ हवाले कर देना । मेरा गले लगाना और तुम्हारा खुद को बेसहारा छोड़ देना । प्यारा में तुम क्यों बन जाती हो …