Category: नवनीत शर्मा
अच्छा लगता है उनका चहकना सुनते हैं देखते हैं उड़ान भर शाख पर लौटती चिडि़यों को अब भी घुड़कते हैं चील कहीं ढोती हैं दाने चिडि़याँ पुट्ठे गिद्धों के …
अब चावल के दाने चुनने का मुहावरा नहीं घर की दीवार में माकूल रंग रचने की परिभाषा हैं। जान गई है चिडि़यां अब तीर रहते हैं चुप भेदती जो …
यहीं से टूटता है घर जब छोटे-छोटे उबाल बन जाते हैं बड़े ज्वालामुखी।
उस परिचित से लगने वाले बुजुर्ग की बेतरतीब दाढ़ी बहुत उदास करती है जैसे मिला न हो कोई हज्जाम बरसों से लोग इसे छूटा हुआ घर कहते हैं।
दरवाजे की सांकल पर सूली चढ़ा है इंतजार कौन है किसके पास क्यारियों में हार गए फूल जीत गई घास.
खिड़कियों को भाने लगा है आकाश सूरज से बिंध रही है छत घर तब तक ही रहता है घर जब तक उग नहीं आते उसी में से और कई …
भेजते रहना पिछवाड़े वाले हरसिंगार जितनी हँसी घराल के साथ वाले अमरूद की चमक दुनिया चाहती है तरह-तरह के सवाल रखना शरारतों के बाद मेरे छुपने के ठिकानों अपना …
ख़्वाबों के लिए हैं न किताबों के लिए हैं हम रोज़-ए-अज़ल से ही अज़ाबों के लिए हैं चलते भी रहें और न मंज़िल नज़र आए हम अपने ही अंदर …
तुम उधर मत जाना राजधानी के अपराध आंकड़ों को छोड़ जब चला एक शांत कस्बे के लिए निश्चिंत था मैं। ठंडी हवाओं ने बताया यहां सुकुन है, यहां के …
रँभाते बछड़े / कुँकुआते पिल्ले / गरम चादरों में तह लगते खरगोश / पट्टुओं की शक्ल में पसरे भेडू / गुल्ली डंडे के मैदान से बेघर कर दिए गए …
सूरजप्रकाश ! बेशक अँधेरे कोने में लगे छाबे से दूर दिखते हैं संबंधों के कोण पर यह वक़्त,अपने होने पर संताप करने का नहीं। देखा नहीं तुमने? एक पल पहले …
दफ़्तर घर माँ प्रेमिका दोस्त ओ सूरजप्रकाश! क्या तुम ऐसी पाँच तख़्तियाँ दे सकते हो? जिन पर लिखा हो `कृपया ठुँग न मारें’
वहाँ कोई फ़र्क़ नहीं रहता मूँगफली और सूरजप्रकाश में। उनके छाबे में सौ करोड़ से ज़्यादा मूँगफली जिसके ख़ूब उतरते हैं छिलके। मिलते हैं पुलों/घाटियों में, कई बार बिना …
वे नफ़ासत से खाते हैं आवाज़ नहीं करते मगर न मालूम,तुम्हारे ‘कृपया’ के ‘डेल कारनेगी’ ने कितने कौव्वों को अपनी चोंच के लिए शर्मसार किया है या कितने चीलों …
मूँगफली के छाबे पर उसने लिखा ‘कृपया ठुँग न मारें’ और आपको लगा साज़िश के शिकार नागरिक शास्त्र के प्रतीक आपके कोट समेत उतार दिए गए है बाकी कपड़े भी। …
वहां अब भी हैं पिता जी की झिड़कियां। जैसे रात हो अब भी दरवाजे की ओर हैं मां के कान टूटी ऐनक के साथ खत खोल रहे हैं दादा …
एक हमारा अप्पू है अप्पू मेरा बेटा है अप्पू मेरा दोश्त है अप्पू है मेरा भाई जिशके शारे बाल उड़ा कर परशों ले गया एक नाई अप्पू बहुत घुमक्कड़ …
उनका जो ख़ुश्बुओं का डेरा है हाँ, वही ज़ह्र का बसेरा है सच के क़स्बे का जो अँधेरा है झूठ के शहर का सवेरा है मैं सिकंदर हूँ एक …
अब पसर आए हैं रिश्तों पे कुहासे कितने अब जो ग़ुर्बत में है नानी तो नवासे कितने चोट खाए हुए लम्हों का सितम है कि उसे रूह के चेहरे …
अनकही का जवाब है प्यारे ये जो अंदर अज़ाब है प्यारे आस अब आस्माँ से रक्खी है छत का मौसम ख़राब है प्यारे अश्क, आहें ख़ुशी ठहाके भी ज़िंदगी …