Category: नवनीत शर्मा
एक शेर की पंक्ति ‘इंतज़ार और करो अगले जनम तक मेरा’, को सुन कर कही गई नज़्म एक मुस्लसल नज़्म जैसे सौदाई को बेवजह सुकूँ मिलता है मैं भटकता …
सुनो साथी ! बेशक हमारे कई कल काले रहे हैं ख़ुशियों के जिस्म पर कुंठाओं के छाले रहे हैं अभिव्यक्तियों के मुंह पर ताले रहे हैं सपनों की फ़सलें देवताओं …
उनके यहां तुम्हारा कई कुछ दर्ज है। दहलना है तुम्हें दरकते देखना। कचरा बना कहानी रोज की। तुम्हारी सुबकियों से धुली कुल्हाडि़यां सिरों से निकली सड़कें और तुम सिर्फ …
साथ जैसे सुख के दुख खुशी के नाराजगी खाली पेट के भूखे पेट उसूल के लचक सब साथ-साथ है।
साथ तन्हा होने का विलोम नहीं पर्यायवाची है दुख हो या टीस बांटना प्रचार की सहमी हुई शुरूआत है सारा शहर, मुल्क साथ-साथ उठता है साथ-साथ जागता है साथ-साथ …
हालांकि अब इससे कोई अंतर नहीं पड़ता फिर भी…. बैंक की तंद्रा तोड़ने में असफल रहती बूढ़ी लाठियों मोटे चश्मों इंटरव्यू देने आई जवान आंखो सुसाइड नोट के अक्षरों …
कविता पढ़ने के बाद अटक गए समीक्षक जी मन से निकला वाह पर मुँह तक नहीं आया दूसरी कविता पढ़ी मन से निकली गाली लबों पर अटक गई टिप्पणी …
एक. ‘न…न…फोटू मत खींचना’ सरसराई जैसे कुछ शाख़ें । ‘फूहड़ न बनो’ बोला अकड़ाया हुआ तना । उधर… माथे पर लगी फ़्लैश के साथ बड़बड़ाया इंजिन एक…दो…तीन फोटो खींच …
वहम जब भी यक़ीन हो जाएँ हौसले सब ज़मीन हो जाएँ ख़्वाब कुछ बेहतरीन हो जाएँ सच अगर बदतरीन हो जाएँ ना—नुकर की वो संकरी गलियाँ हम कहाँ तक …
1. सफ़ेद रूमाल के कोने पर अंग्रेजी में बुने गए हैं अक्षर शक भी नहीं होता कि उसे धुँधलाएगी समय की धूल चिढ़ाएँगी सफ़ेदी में दुबकी शर्तें रूमाल अब …
यह जो बस्ती में डर नहीं होता सबका सजदे में सर नहीं होता तेरे दिल में अगर नहीं होता मैं भी तेरी डगर नहीं होता रेत के घर पहाड़ …
मुझे उम्मीद थी भेजोगे नग़्मगी फिर से तुम्हारे शहर से लौटी है ख़ामुशी फिर से यहाँ दरख़्तों के सीने पे नाम खुदते हैं मगर है दूर वो दस्तूर-ए-बंदगी फिर …
बेहतर दुनिया, अच्छी बातें, पागल शायर ढूंढ़ रहे हैं ज़हरीली बस्ती में यारो, हम अमृतसर ढूंढ़ रहे हैं ख़ालिस उल्फ़त,प्यार- महब्बत, ख़्वाब यक़ीं के हैं आंखों में दिल हज़रत …
जिनके लिए कविता विज्ञापनी धुन में ख़ुशबूदार बालों के साथ लहराता जुमला है वे कविता से उतनी ही दूर हैं जितनी दूर नारों से कविता त्रासदी यह हमारे दौर …
सर्द बारिश में भीग आँखों में जुगनू लिए पनाह माँग रहे हैं कुछ पिल्ले ट्रक से टकरा कर निचेष्ट हुई गाय की खुली आँखों में है कन्हैया के नाम …
बदल दी चोट खाए बाज़ुओं ने धार चुटकी में छिना था मेरे हाथों से जहाँ पतवार चुटकी में उन्हें तुमने कहा था एक दिन बेकार चुटकी में चढ़े आते …
कितने ही साल से ख़ामोश है चिठ्ठियों पर पुतने वाली गोंद कोई नहीं पूछता कविता का मिजाज़ पिछवाड़े पड़ा बालन उसकी खपचियाँ भूल गई हैं ड्रिफ़्टवुड से अपना रिश्ता …
पिता उसकी जेब में पड़ी कलम के कारण विनम्र हो गए हैं उसके शब्द ख़त्म होने को डराते चावल के पेड़ू ने कर दिया है उसे सावधान उदासियों में …
डायरियों पर आकृतियाँ बनाते हैं बच्चे पहनते हैं दादा की ऐनक़ जिससे दिखते थे उर्दू के कुछ मीठे शब्द बच्चों को आता है चक्कर शीशम के बने टेबल लैंप …
ख़ूब लड़ी वह जेब सरसों के तेल की धार से कोयले की बोरी ले कर लड़ते रहे वे हाथ जाड़ों से । पिता सोए बड़के की फीस के हिज्जे …
वक्त की चोट से हिले हैं कब्ज़े खिड़कियों के खुली हवा का चाव पूरा हो गया घर मगर कितना अधूरा हो गया अब छत नहीं मिलती शब्द जहां उतार …
घरों में बलग़मी छाती का होना दीवारों का चौकस छत का मजबूत होना है। वही झेलती है तीरों की धूप कुरलाणियों की बरखा । दुख बस यही कि खिड़कियाँ …
उनका जो ख़ुश्बुओं का डेरा है हाँ, वही ज़ह्र का बसेरा है सच के क़स्बे का जो अँधेरा है झूठ के शहर का सवेरा है मैं सिकंदर हूँ एक …
यह बस तुम्हारे शहर से आई है ड्राइवर के माथे पर पहुँचने की खुशी थके हुए इंजन की आवाज धूल से आंख मलते खिड़कियों के शीशे सबने यही कहा …
शिमला के अकड़ाए हुए देवदार से भला क्या मुकाबला थुनाग की रई का पर इतना सीधापन भी क्या कि कुक्कर् की पहली विसल से भी पहले गल जाएँ बगस्याड़ …