Category: नवनीत पाण्डे
अगर मैं कहीं हूं तो होगा ही मेरा एक समय अपना जैसा कि होता है सबका अपना समय कहीं एक मिनट आगे कहीं एक मिनट पीछे कहीं सैकेण्ड-दो सैकेण्ड …
मुझे देखने है सारे अदेखे दृष्य मुझे जानने है सारे अज्ञाने ज्ञान मुझे समेटने है सारे बिखराव बस इसी एक आस में बैठा हूं कब से इस नंगधड़ंग तार …
पेड़ों के नीचे हैं छाया पेड़ों की, पेड़ों पर लगे फलों में है बीज पेड़ों के पेड़ों के बीजों में सहेज कर रखे हैं न जाने कितने अजन्मे पेड़ …
हाथी की ओर बढ़ रही थी चींटी हाथी जानता था हाथी पर चढ़ रही थी चींटी हाथी जानता था हाथी पर घूम रही थी चींटी हाथी जानता था हाथी …
अलसुबह नींद से जागने से रात को सोने तक कितनी चीज़ें गुज़रती है हाथों से होकर पता नहीं क्या-क्या करते हैं हाथ पता नहीं कुछ भी नहीं रहता टिका …
कोई भी ऊंचाई आखिर क्या देती है सिवाय एक हद के मैं कभी नहीं चाहूंगा मेरी कविता बंधे किसी हद में कोई भी पहाड़ महज़ एक पत्थर हो सकता …
रोज अलसुबह सबसे पहले जागकर सारा घर बुहारती, संवारती है लगता है.. वह घर नहीं घर में रहनेवालों का दिन संवारती है रोज गए रात सबके सो चुकने के …
उसका दावा है जो रोपा था उसने बीज नहीं था उसका दावा है जो उग रहा है पौधा नहीं है उसकी शोध अभी पूरी नहीं हुई है इसलिए बता …
शहर में लड़की खुद बताती है वह लड़की है उसने हटवा दिए हैं सारे पर्दे वह जान गई है सब रिश्तों की गहराई वह पढ़ चुकी है हर किताब …
मत मानों मत स्वीकारो चाहे जितनी बार मारो नोच लो पर फ़िर भी उड़ूंगा नहीं मरूंगा न ही डरूंगा किसी भय जय-पराजय से नहीं मानूंगा हार…. खुले रखे हैं …
संबोधन से शुरु करते हुए अपनी यात्रा तुम पहुंचे मुझ तक अपने अर्थ से दे कर मुझे आकार भर कर प्राण खड़ा कर दिया अपने ही सामने कि अब …
पहाड़ खुदा तो पहाड़ के भीतर दिखे कई पहाड़ अपरिचित था पहाड़ खुद भी अपने भीतर के पहाड़ों से
पहाड़ को जिसने भी देखा है होते हुए पहाड़ एक वही जानता है पहाड़ का भीतर पहाड़ अपने आप कभी नहीं खोलता अपना भीतर
धरती पर धरती का ही अंश है पहाड़ पहाड़ के हाड़ों में भरी है जाने कितनी उर्वरा तभी तो पहाड़ दिखता है हरा एक बार! सिर्फ़ एक बार पहाड़ …
चढते हुए पहाड़ पर रास्तों पर चलने के अभ्यस्त पैर डगमगाए कई बार बहुत डराया चेताया पहाड़ ने पहली बार महसूसा और जाना पहाड़ों से बतियाते हुए पहाड़ के …
दबते-दबते उगना आया उगते-उगते पलना पलते-पलते फ़लना आया फ़लते-फ़लते खिरना टिप टिप करते बहना आया बहते-बहते झरना झरते- झरते झुरना आया झुरते-झुरते सहना.. पढते-पढते लिखना आया लिखते-लिखते सीखना सीखते-सीखते …
दिल्ली केवल नाम नहीं है किसी शहर का पहचान है एक देश की प्राण है एक देश का यह अलग बात है- दिल्ली में एक नहीं कई दिल्लियां हैं- …
तुम्हारे जाने पर कुछ घण्टे रोएं हम तुम्हारी अंतिम यात्रा में कुछ बातें भी की तुम्हारी तुम कितने अच्छे थे, सब की इज्ज़त करते थे, सब से प्यार से …
तुम कल हो मैं आज तुम से मिलने की प्रतीक्षा में कल कल हो जाऊंगा रह जाऊंगा यूंही प्रतीक्षारत आज से कल कल से कल होते हुए तुमसे कभी …
घर के बाहर खड़ा वह देख रहा है अपना घर उसका भीतर भीतर का भीतर मैं देख रहा हूं उसके चेहरे पर अनंत के सारे रंग अंत के सारे …
जो रहा अनकहा मैंने कहा गोया कि थम गई नदी समंदर बहा टुकुर-टुकुर देखता भर रहा बस यह विलोम आसमान
जहां मैं हूं क्या नहीं है वहां सब कुछ तो है जिसे मैं समझता हूं सब कुछ एक बूढा आदमी याद नहीं उसने स्वयं कभी मुझे अपना बेटा कहा …
जहां पहुंच कर होंठ हो जाते हैं गूंगे आंखें अंधी और कान बहरे समझ,नासमझ और मन अनमना पूरी हो जाती है हद हर भाषा की अभिव्यक्ति बेबस बंध, निर्बंध …
उसके हाथ-पैर दुरस्त है वह बिना किसी सहारे आराम से चल फिर सकता है फिर भी छड़ी लिए चलता है उसका मानना है छड़ी जरूरी है, मजवूरी है सफलता …
जहां कहीं भी होगी गूंज वह सुनेगा पहचानेगा और आत्मसात् कर लेगा अपने भीतर भले ही डराने लगे भूत न संवरे भविष्य गड़बड़ा जाए आज