Category: नईम
प्यासे को पानी, भूखे को दो रोटी मौला दे! दाता दे!! आसमान की बात न जानूं जनगण भाग्य विधाता दे! धरती और आकाश न मांगूं, या ईश्वरीय प्रकाश न …
आओ हम पतवार फेंककर कुछ दिन हो लें नदी-ताल के। नाव किनारे के खजूर से बाँध बटोरं शंख-सीपियाँ खुली हवा-पानी से सीखें शर्म-हया की नई रीतियाँ बाँचें प्रकृति पुरुष …
नज़र लग गई हैशायद आशीष दुआओं को रिश्ते खोज रहे हैं अपनी चची, बुआओं को नज़रों के आगे फैले बंजर, पठार हैं डोली की एवज अरथी ढोते कहार हैं …
हो न सके हमछोटी सी ख्वाहिश का हिस्सा हो न सके हम बदन उधारे बच्चों जैसा गर्मी या बारिश का हिस्सा हुआ न मनुवां किसी गौर की महफिल का …
हम तुमकोशिश ही करते रह गये जनम भर¸ लेकिन वो जाने¸ क्यूं¸ कैसे – रातों–रात महान हो गये? नये संस्करण में किताब के – शब्द असम्भव शेष नहीं अब¸ …
हम कहें वो सुनें या फिर वो कहें हम सुनें, होगा देखना! जब पड़ेंगे दिन छिटक कर दूर- आक्रमणों प्रत्याक्रमणों हो भले फिर चूर, तरद्दुद में पड़े मायाभारते सिर …
भूत प्रेतों को नहीं, केवल समय को साधना है।बंधु! मेरी यही पूजा-अर्चना, आराधना है। शब्द व्याकुल हैं समय के मंत्र होने के लिए और यह भाषा व्यवस्था तंत्र होने …
शामिल कभी न हो पाया मैं¸उत्सव की मादक रून–झुन में जानबूझ कर हुआ नहीं मैं – परम्परित सावन¸ फागुन में क्या कहियेगा मेरे इस खूसठ स्वभाव को? भीड़–भाड़¸ मेले–ठेले …
लिखते कटते हाथ हमारेकिंतु जबां पर आंच न आती। लिखने कहने में अंतर है कैसे हैं ये सखा संगाती? लिखती वही वही जो कहना चाह रहा मैं दिल-दिमाग़ की …
लगने जैसा लिखा नहीं कुछ बहुत दिनों से कर न सका स्वायत्त ठीक से कभी स्वयं की ही भाषा को, मूर्त न कर पाया अनुभूते क्षण की – आशा …
महाकाल के इस प्रवाह में यत्नहीन बहते जाना ही – सचमुच क्या अपना होना है? वय के बंजर हिस्से में, देख रहा हूं अपने को मैं – पीछे जाकर …
धुँधले प्रतिबिम्ब और काँपती लकीर । पीले पन्नों को जो मोड़ रहे भीड़ को अकेले में छोड़ रहे धारा से कटे हुए उम्र के फ़क़ीर । तीन पात ढाक …
दामन को मल-मलकर धोया, दाग़ नहीं छूटे । बड़ी पुण्य-भागा है शिप्रा । कालिदास के मेघदूत-सा डूबा, उतराया ठहरा, मँडराया । काट रहा हूँ अपना बोया कर्म किस फूटे …
छोड़ो छोड़ो चरचे अब ये बहुत पुराने। कब तक इनमें हम रस, रूप, सुगंध तलाशें? जीवित हैं कुछ शब्द और कुछ केवल लाशें। लोगों को लगता है आए नए …
चिट्टी पत्री ख़तो किताबत के मौसम फिर कब आएंगे? रब्बा जाने, सही इबादत के मौसम फिर कब आएंगे? चेहरे झुलस गये क़ौमों के लू लपटों में गंध चिरायंध की …
चाहना जागी लगे खाँचा बनाने- समय श्रम। दोनों लगे साँचा बनाने। चाहता हूँ ढालना अनुभूतियों को और प्राणों में बसे कुछ मोतियों को। रूप, रंग, आकार की क्यों फ़िक्र …
खून का आँसू – हमारी आँख में, ठहरा हुआ है । बाहरी हो तो करूँ तीमारदारी, रिस रहे नासूर से तो अक्ल हारी । मरहमपट्टी से सरासर- सच ये …
खड़े न रह पाये जमकर हम किसी ठौर भी लिखा-पढ़ा कुछ काम न आया किसी तौर भी रहे बांधते हाथ कामयाबी के सेहरे, देते रहे पांव अपने गैरों के …
क्या कहेंगे लोग¸ कहने को बचा ही क्या? यदि नहीं हमने¸ तो उनने भी रचा ही क्या? उंगलियां हम पर उठाये–कहें तो कहते रहें वे¸ फिर भले ही पड़ौसों …
आओ हम पतवार फेंककर कुछ दिन हो लें नदी ताल के नाव किनारे के खजूर से बांध बटोरें शंख-सीपियाँ खुली हवा, पानी से सीखें शर्मो-हया की नई रीतियाँ बाचें …
कुछ तो कहिये कि सुने हम भी माजरा क्या है। जीना दुश्वार तो मरने का आसरा क्या है। लाखों तूफान आँधियों में जो महफूज रही बता आये खाके वतन …
किसकी कुशल-क्षेम पूछें अब, किसको अपनी पीर परोसें ? किसको कहाँ असीसें भेजें किस-किस की चुप्पी को कोसें ? फिक्रमंद इन-उनकी ख़ातिर अपनी ही गो ख़बर नहीं है । समय रुक …
काशी साधे नहीं सध रही चलो कबीरा! मगहर साधें सौदा-सुलुफ कर किया हो तो उठकर अपनी गठरी बांधें इस बस्ती के बाशिंदे हम लेकिन सबके सब अनिवासी, फिर चाहे …
करतूतों जैसे ही सारे काम हो गए किष्किंधा में लगता – अपने राम खो गए । बाली और सुग्रीवों से कुछ – कहा न जाए, न्याय माँगते – शबरी, …
रहते आए जनम जनम से अमलदारियों में इन-उनकी रंग, रूप, खुशबू की खातिर खिले क्यारियों में इन-उनकी। हाल पूछते हो क्या अपने? आते नहीं नींद में सपने रातें रहीं …