Category: एम० के० मधु
पहाड़ से गिरती पत्थरों से चोट खाती वह नदी सूख चुकी है पलक की कोर से दो बूँदें ओस की उठा सको तो उठा लो आँसुओं के सैलाब को …
तुम छूते हो दुखता है लगाते हो जब मरहम घाव पर मेरे मुझे तुम्हारी पहचान नहीं पर मेरे घावों को तुम्हारी उँगलियों की पहचान है ।
उसकी बालकनी पर गमले में कैक्टस और लिलि के पौधे साथ-साथ सजे हैं मेरी खिड़की से यह साफ़-साफ़ दीखता है कैक्टस की विशालता के बीच लिलि का पौधा दब …
जब वह रौंदता है उसे अपनी खरीदी हुई ज़मीन समझकर तब उसकी खरगोशी आंखों में एक खूंख़ार नाखून चुभता है और एक ख़ास मौसम में दीवाना हुए गली-पशु का …
धान कूटती फुलबतिया समाठ की हर चोट पर उखल में समय कूटती है चोट की ताल पर कुछ गुनगुनाती है दर्दीले स्वर में मरद के खोने की बात सुनाती …
मैं देख रहा हूं अपने बेटे और बेटी को जिनके कंधे अब उचक कर मेरे कंधे को पार कर जाना चाहते हैं मैं देख रहा हूं उनकी आंखों को …
जंगल की आग से जन्मी है एक औरत सुर्ख़ होती है अख़बार के फलक पर स्याही की बूंद और कलम की नोंक पर वह जुगनू-सी चमकती है पर्चों पर …
बदसूरत लड़की बसंत की अमराई हवाओं पर न गदराती है, न मदमाती है आषाढ़ की पहली बूंद पर न आह्लादित होती है, न गुनगुनाती है बदसूरत लड़की कोयल के …
तुम्हारी बूढ़ी आंखें और मूंठ वाली लाठी पुल बनते-बनते रुक जाती हैं दो गांवों के बीच रिश्तों की धार बार-बार तेज़ हो जाती है और बहा ले जाती है …
रेत की तरह क्यों भुरभुरे हो रामदहीन क्यों नहीं बनते सीमेंट और जोड़ते परिवार सोचो रामदहीन क्यों हो जाता है तुम्हारा घोंसला तार-तार गारे लगाते ईंट जोड़ते चालीस पहुँच …
तुम तो बस प्यादे थे पांव तुम्हारा था, कंधे तुम्हारे थे शह और मात की चाल हमारी थी तुम तो बस जमूरे थे कदम तुम्हारे थे, ताल तुम्हारे थे …
हवा की सीढ़ियां चढ़ मिट्टी आकाश को उड़ रही उफ़नता समुद्र में डूबता सूर्य कुछ कहता रहा चांद के मौन पर जुगनुएं चीख़ती रहीं स्याह रातें कुछ अनकही कहती …
ज़िंदगी का यह कैसा मुक़ाम जब हर कोई चाहता है पीना मेरे लहू का जाम क्यों हो गया है यह इतना ज़ायकेदार कि हर किसी की जीभ लपलपाने लगी …
आकाश साफ़ था स्वप्न पंख लगा सरपट भाग रहा था और मैं उसके पीछे तेज़ और तेज़ प्रकाश की गति में, किन्तु स्वप्न के पंख में तो जैसे अनन्त …
बचपन में बादलों की अंधेरी गुफा में डूबते सूर्य को देखा है मैंने कई बार और कई बार अंधेरे से उबरते उस प्रकाशपुंज को टुकड़ा-टुकड़ा फिर पूर्ण आकार लेते …
हर सुबह खुलती है मेरी नींद मस्जिद की अज़ान से शुरू करता हूं अपनी दिनचर्या मंदिर की घंटियों के साथ मन को करता हूं शोधित गिरजा की कैरोल-ध्वनि पर …
चुपके से चोरी से मैं गठरी में मोटरी में ईश्वर को लपेटकर ले आया हूं अपने घर मच गया होगा पंडित के घर में हाहाकार जब उसने देखा होगा …
एक युद्ध-सा छिड़ गया है हाथ काटने वाले हाथ और हाथ थामने वाले हाथों के बीच निकल पड़े हैं निगहबान की आंख तराशने कुछ चील, कौवे और गिद्ध और …
आज मेरे आकाश पर बनता है इन्द्रधनुष किन्तु रंगहीन आज मेरे मंदिर में बजती हैं घंटियां किन्तु स्वरहीन मेरे सितार पर सजते हैं गीत किन्तु लयविहीन मेरे चित्रपट पर …
मेरे अजाने पुरुष कब तुम अपनी चरण-धूलि से धूसरित करोगे मेरी जोहती बाट को जो क्षितिज की चौखट पर बैठकर युगों से जोह रही हूं मेरे अजाने पुरुष रश्मिरथी …
मैंने स्वयं एक चक्रव्यूह रचा है मैंने स्वयं अभिमन्यु की भूमिका अदा की है मैंने स्वयं ही जयद्रथ बन अपने अभिमन्यु की हत्या कर डाली और मृत्यु से पहले …
मैं विद्वान नहीं विद्वान बनने की साजिश भी नहीं मैं तो महज़ एक आदमी हूं बस सहज एक आदमी हूं जिसके चेहरे पर टंगी है तहरीर थोड़ा है, थोड़ा …
पंचवटी को रौंदता कुलाचें भरता वह सोने का हिरण मारीच की आत्मा लिए सपने बिखेरता वह स्वर्ण-किरण ॠषियों का वन मिट्टी का कण फूल-पत्तों का मन चांदनी-चमन सब रोक …
मैं नहीं जन्मा हूँ सूर्य से प्राप्त कवच, कुंडल लेकर मेरे साथ है पिता प्रदत्त सत्य जो किसी भी युद्ध को जीतने में है सक्षम मैं करता नहीं प्रयोग …
बदलने का सुख ये उंगलियां जो कभी इंगित होती थीं दूसरों के घरों में सूराख़ तलाशने अब मुट्ठी बन आकाश में लहराती हैं और बनती हैं आवाज़ उन सूराख़ों …