Category: जितेन्द्र श्रीवास्तव
धूप क़िताबों के ऊपर है या भीतर कहीं उसमें कहना मुश्किल है इस समय इस समय मुश्किल है कहना कि क़िताबें नहा रही हैं धूप में या धूप क़िताबों …
दिल्ली के पत्रहीन जंगल में छाँह ढूँढ़ता भटक रहा है एक चरवाहा विकल अवश उसके साथ डगर रहा है झाग छोड़ता उसका कुत्ता कहीं पानी भी नहीं कि धो …
स्व० भवानी प्रसाद मिश्र को याद करते हुए मैं कवि नहीं झूठ फ़रेब का रुपया-पैसा सोने-चांदी का मैं कवि हूँ जीवन का सपनों का उजास भरी आँखों का मैं …
तुम हो तो यह जीवन है तुम्हारे बिना कल्पना भी नहीं जीवन की प्रिये! यह प्रेम बोध नहीं क्षण भर का यह यात्रा है जीवन की तुम हो तो …
तुम कभी नहीं रहती मुझ से दूर यह निरभ्र आकाश गवाह है इस बात का तुम रहती हो मुझ में गहरे बहुत गहरे कहीं मेरी आत्मा के रस में …
तुम हो यहीं आस-पास जैसे रहती हो घर में घर से दूर यह एक अकेला कमरा भरा है तुम्हारे होने के अहसास से होना सिर्फ़ देह का होना कहाँ …
सूर्य उदित पहाड़ मुदित सूर्य अस्त पहाड़ मस्त हो सकता है कुछ लोगों के लिए यह सच हो दूध के रंग जितना पर इसे पूरा-पूरा सच मान लेना पहाड़ …
घर से दूर ट्रेन में पीते हुए चाय साथ होता है अकेलापन वीतरागी-सा होता है मन शक्कर चाहे जितनी अधिक हो मिठास होती है कम चाय चाहे जितनी अच्छी …
वहाँ पसरा है मौत के बाद का सन्नाटा हवा की साँय-साँय में घुला है भय झींगुरों की आवाज़ विलीन हो रही है विधवाओं के विलाप में झगड़ा महज एक …
धन्यवाद पिता कि आपने चलना सिखाया अक्षरों शब्दों और चेहरों को पढ़ना सिखाया धन्यवाद पिता कि आपने मेंड़ पर बैठना ही नहीं खेत में उतरना भी सिखाया बड़े होकर …