Category: जतिन्दर परवाज़
सहमा सहमा हर इक चेहरा मंजर मंजर ख़ून में तर शहर से जंगल ही अच्छा है चल चिड़िया तू अपने घर तुम तो ख़त में लिख देती हो घर …
शजर पर एक ही पत्ता बचा है हवा की आँख में चुभने लगा है नदी दम तोड़ बैठी तशनगी से समन्दर बारिशों में भीगता है कभी जुगनू कभी तितली …
वो नज़रों से मेरी नज़र काटता है मुहब्बत का पहला असर काटता है मुझे घर में भी चैन पड़ता नही था सफ़र में हूँ अब तो सफर काटता है …
यूँ ही उदास है दिल बेकरार थोड़े ही है मुझे किसी का कोई इंतज़ार थोड़े ही है नजर मिला के भी तुम से गिला करूँ कैसे तुम्हारे दिल पे …
यार पुराने छूट गए तो छूट गए काँच के बर्तन टूट गए तो टूट गए सोच समझ कर होंट हिलाने पड़ते हैं तीर कमाँ से छूट गए तो छूट …
मुझ को खंजर थमा दिया जाए फिर मिरा इम्तिहाँ लिया जाए ख़त को नज़रों से चूम लूँ पहले फिर हवा में उड़ा दिया जाए तोड़ना हो अगर सितारों को …
बारिशों में नहाना भूल गए तुम भी क्या वो जमाना भूल गए कम्प्यूटर किताबें याद रहीं तितलियों का ठिकाना भूल गए फल तो आते नहीं थे पेडों पर अब …
ज़रा सी देर में दिलकश नजारा डूब जाएगा ये सूरज देखना सारे का सारा डूब जाएगा न जाने फिर भी क्यों साहिल पे तेरा नाम लिखते हैं हमें मालूम …
गुमसम तनहा बैठा होगा सिगरट के कश भरता होगा उसने खिड़की खोली होगी और गली में देखा होगा ज़ोर से मेरा दिल धड़का है उस ने मुझ को सोचा …
क्यों खड़ी हम ने की हैं दीवारें दूर जब कर रही हैं दीवारें जैसे कोई सवाल करता है इस तरह देखती हैं दीवारें अब मुलाक़ात भी नहीं मुमकिन दरमियाँ …
आँखें पलकें गाल भिगोना ठीक नहीं छोटी-मोटी बात पे रोना ठीक नहीं गुमसुम तन्हा क्यों बैठे हो सब पूछें इतना भी संज़ीदा होना ठीक नहीं कुछ और सोच ज़रिया …