Category: जयशंकर प्रसाद
ले चल वहाँ भुलावा देकर मेरे नाविक ! धीरे-धीरे । जिस निर्जन में सागर लहरी, अम्बर के कानों में गहरी, निश्छल प्रेम-कथा कहती हो- तज कोलाहल की अवनी रे । …
हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार । उषा ने हँस अभिनंदन किया, और पहनाया हीरक-हार ।। जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर …
शरद का सुंदर नीलाकाश निशा निखरी, था निर्मल हास बह रही छाया पथ में स्वच्छ सुधा सरिता लेती उच्छ्वास पुलक कर लगी देखने धरा प्रकृति भी सकी न आँखें …
तुम कनक किरन के अंतराल में लुक छिप कर चलते हो क्यों ? नत मस्तक गवर् वहन करते यौवन के घन रस कन झरते हे लाज भरे सौंदर्य बता दो …
कानन-कुसुम – पुन्य औ पाप न जान्यो जात। सब तेरे ही काज करत है और न उन्हे सिरात ॥ सखा होय सुभ सीख देत कोउ काहू को मन लाय। …
आह ! वेदना मिली विदाई मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई छलछल थे संध्या के श्रमकण आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण मेरी यात्रा पर लेती थी नीरवता अनंत अँगड़ाई …
मधुप गुन-गुनाकर कह जाता कौन कहानी अपनी यह, मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी। इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्य जीवन-इतिहास यह लो, करते ही रहते हैं अपने …
अरुण यह मधुमय देश हमारा। जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।। सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर। छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कुंकुम सारा।। …
हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती ‘अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो, प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!’ असंख्य …
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती – स्वयंप्रभा समुज्जवला स्वतंत्रता पुकारती – अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो, प्रशस्त पुण्य पंथ हैं – बढ़े चलो बढ़े चलो। …
“तुमुल कोलाहल कलह में मैं हृदय की बात रे मन! विकल होकर नित्य चंचल, खोजती जब नींद के पल, चेतना थक-सी रही तब, मैं मलय की वात रे मन! …
कोमल किसलय के अंचल में नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी, गोधुली के धूमिल पट में दीपक के स्वर में दिपती-सी। मंजुल स्वप्नओं की विस्मृति में मन का उन्माद निखरता ज्यों …
बीती विभावरी जाग री! अम्बर पनघट में डुबो रही तारा घट ऊषा नागरी। खग कुल-कुल सा बोल रहा, किसलय का अंचल डोल रहा, लो यह लतिका भी भर लाई …