Category: जगदीश व्योम
हरी दूब-सी छाया बरगद-सी सदा पावन माँ कभी रामायण और कभी गीता-सी। नदी बनती कभी बनती धूप कभी बदली माँ पावन गंगोत्री जल से भी पतली। ढल जाती है …
बादल कौन देश से आए! ये सावन की घटा घनेरी- क्या-क्या राज छिपाए कुछ भूरे, कुछ काले-काले कुछ काले-भूरे कुछ अभाव से ग्रसित और कुछ दिखते हैं पूरे बहते …
बाजीगर बन गई व्यवस्था हम सब हुए जमूरे सपने कैसे होंगे पूरे चार कदम भर चल पाए थे पैर लगे थर्राने क्लांत प्रगति की निरख विवशता छाया लगी चिढ़ाने …
कण कण तृण तृण में चिर निवसित हे! रजत किरन के अनुयायी सुकुमार प्रकृति के उदघोषक जीवंत तुम्हारी कवितायी फूलों के मिस शत वार नमन स्वीकारो संसृति के सावन …
छिड़ता युद्ध बिखरता त्रासद इंसां रोता है जन- संशय त्रासदी ओढ़कर आगे आया है महानाश का विकट राग फिर देखो गाया है पल में नाश सृजन सदियों का ऐसे …
सो गई है मनुजता की संवेदना गीत के रूप में भैरवी गाइए गा न पाओ अगर जागरण के लिए कारवां छोड़कर अपने घर जाइए झूठ की चाशनी में पगी …
वक्त के मछुआरे ने फेंका था जाल कैद करने के लिए `सघन तम’ को जाल के छिद्रों से फिसल गया `तम’ और कैद हो गया सूरज का टुकड़ा वक्त …
जाने क्या हो गया, कि सूरज इतना लाल हुआ। प्यासी हवा हाँफती फिर-फिर पानी खोज रही सूखे कण्ठ-कोकिला, मीठी बानी खोज रही नीम द्वार का, छाया खोजे पीपल गाछ …
वक्त का आखेटक घूम रहा है शर संधान किए लगाए है टकटकी कि हम करें तनिक सा प्रमाद और, वह दबोच ले हमें तहस नहस कर दे हमारे मिथ्याभिमान …
मेरा भी तो मन करता है मैं भी पढ़ने जाऊँ अच्छे कपड़े पहन पीठ पर बस्ता भी लटकाऊँ क्यों अम्मा औरों के घर झाडू-पोंछा करती है बर्तन मलती, कपड़े …
माँ कबीर की साखी जैसी तुलसी की चौपाई-सी माँ मीरा की पदावली-सी माँ है ललित रूबाई-सी। माँ वेदों की मूल चेतना माँ गीता की वाणी-सी माँ त्रिपिटिक के सिद्ध …
बहते जल के साथ न बह कोशिश करके मन की कह। मौसम ने तेवर बदले कुछ तो होगी खास बज़ह। कुछ तो खतरे होंगे ही चाहे जहाँ कहीं भी …
छीनकर खिलौनो को बाँट दिये गम । बचपन से दूर बहुत दूर हुए हम।। अच्छी तरह से अभी पढ़ना न आया कपड़ों को अपने बदलना न आया लाद दिए …
पीपल की छांव निर्वासित हुई है और पनघट को मिला वनवास फिर भी मत हो बटोही उदास प्रात की प्रभाती लाती हादसों की पाती उषा किरन आकर सिंदूर पोंछ …
पिउ पिउ न पिपहरा बोल, व्यथा के बादल घिर आएंगे होगी रिमझिम बरसात पुराने ज़ख्म उभर आएंगे।। आंखों के मिस दे दिया निमंत्रण मुझे किसी ने जब से सुधियों …
आमों पर खूब बौर आए भँवरों की टोली बौराए बगिया की अमराई में फिर कोकिल पंचम स्वर में गाए। फिर उठें गंध के गुब्बारे फिर महके अपना चन्दन वन …
सिमट गई सूरज के रिश्तेदारों तक ही धूप न जाने क्या होगा घर में लगे उकसने कांटे कौन किसी का क्रंदन बांटे अंधियारा है गली गली गुमनाम हो गई …
दादी कहती है कि जब जब नया साल आता है महँगाई की फुटबॉल में दो पंप हवा और डाल जाता है गरीबी की चादर में एक पैबंद और लगाकर …
-एक- चंपा और चमेली बेला कचनार झूम उठे धरती ने धानी चुनरी सी फहराई है सुधि बुधि भूले सुत सारंग सुगंध सूंघि ऐसी वा बिसासी अमवा की अमराई है …
चीं-चीं, चीं-चीं, चूँ-चूँ, चूँ-चूँ भूख लगी मैं क्या खाऊँ बरस रहा बाहर पानी बादल करता मनमानी निकलूँगी तो भीगूँगी नाक बजेगी सूँ-सूँ, सूँ चीं-चीं, चीं-चीं, चूँ-चूँ चूँ ……. माँ …
आहत है संवेदना, खंडित है विश्वास। जाने क्यों होने लगा, संत्रासित वातास।। कुछ अच्छा कुछ है बुरा, अपना ये परिवेश। तुम्हें दिखाई दे रहा, बुरा समूचा देश।। सब पर …
गिलहरी दिन भर आती-जाती फटे-पुराने कपड़े लत्ते धागे और ताश के पत्ते सुतली, कागज, रुई, मोंमियाँ अगड़म-बगड़म लाती। गिलहरी दिनभर आती-जाती।। ठीक रसोईघर के पीछे शीशे की खिड़की के …
सोचो और बताओ आख़िर है किसकी तस्वीर नंगा बदन कमर पर धोती और हाथ में लाठी बूढ़ी आँखों पर है ऐनक कसी हुई कद काठी लटक रही है बीच …
इतने आरोप न थोपो मन बागी हो जाए मन बागी हो जाए, वैरागी हो जाए इतने आरोप न थोपो… यदि बांच सको तो बांचो मेरे अंतस की पीड़ा जीवन …
आहत युगबोध के जीवंत ये नियम यूं ही बदनाम हुए हम ! मन की अनुगूंज ने वैधव्य वेष धार लिया कांपती अंगुलियों ने स्वर का सिंगार किया अवचेतन मन उदास …