Category: ख़्वाजा हैदर अली ‘आतिश’
बैठे भंग छानत अनंग-अरि रंग रमे, अंग-अंग आनँद-तरंग छबि छावै है। कहै ‘रतनाकर’ कछूक रंग ढंग औरै, एकाएक मत्त ह्वै भुजंग दरसावै है॥ तूँबा तोरि, साफी छोरि, मुख विजया …
सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या केहती है तुझको खल्क़-ए-खुदा ग़ाएबाना क्या ज़ीना सबा का ढूँढती है अपनी मुश्त-ए-ख़ाक बाम-ए-बलन्द यार का है आस्ताना क्या ज़ेरे …
ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तगू करते पयाम बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शर की आरज़ू करते मेरी …
यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया रात भर तालि’-ए-बेदार ने सोने न दिया एक शब बुलबुल-ए-बेताब के जागे न नसीब पहलू-ए-गुल में कभी ख़ार ने …
दोस्त हो जब दुश्मन-ए-जाँ तो क्या मालूम हो आदमी को किस तरह अपनी कज़ा मालूम हो आशिक़ों से पूछिये खूबी लब-ए-जाँबख्श की जौहरी को क़द्र-ए-लाल-ए-बेबहा मालूम हो दाम में …