Category: गोपाल गुंजन
देखो ,फिर साँझ हुई घूम रहा बघेरा ! मानस और तापस उतर रहे उपर से गीतों के संग लिए मीठे सौगात उमड़ रही बदरी ,छाया अँधियारा गायों और भेड़ों …
वर्षों से तुमने कोशिश की हमें गूंगा बनाने की चाहते रहे मौन हो जाए हमारे शब्द डूब जाए हमारी आवाज ,हमारी पहचान राहत के नाम पर हम हो जाएँ …
मैंने माना कि तुझे अपनों से बहुत प्यार है कि तुम सवालों में नहीं चाहते उलझना तुझे डर है कि /सवालों के जाल में फंसने पर होगा बुद्ध …
आदमी /जीता है जिन्दगी अपने पुरे होश-हवाश में एक-एक कर /हर ठिकाने पर रुकता है सम्भलता है ,फिर /बढता है आगे | साथ-साथ उसके /चलता है उसका भूत …
आवादी के दलदल में /धंसे पैर लेकर उबरने की कोशिश में और धंसता जा रहा है /आहत देश | ह्रदय की कन्दराओं में /स्निग्ध प्यार की जगह घुटन ,कुंठा …
बहुत मुश्किल है /तेरे वगैर जीना | भरमता ही रहा /पहाड़ की तलहटियों में नदी के किनारों के संग नदी भी चलती रही /साथ-साथ ज्यों गुम; किनारों से टकराकर …
खोजते –खोजते मैंने/ उसे उस दिन पा लिया | मैंने खुशी से हाथ मिलाने की/ कोशिश की उसने अपनी आँखें /दहक रही भट्ठी की तरह लाल कर ली | …
सोचा था मैंने अब नहीं लिखूँगा कविताएँ टूटन की ,घुटन की /लावारिस आँखों के सपनों की सामाजिक विवशताओं की /जलती हुई हसरतों की बुझती हुई विश्वास की /अब नहीं …