Category: घनश्याम कुमार ‘देवांश’
जब तुम चली जाओगी तुम्हारी गली में सूरज तब भी उगेगा यथावत, चाँद सही समय पर दस्तक देना नहीं भूलेगा, फूल खिलना नहीं छोड़ देंगे, हवाओं में ताजगी तब …
जब मैं तुम्हारा साथ पाने के लिए कह रहा था कि मैं अकेला हूँ अकेला नहीं था शायद उस वक़्त भी, मेरी दो बाजुओं पर पुरवैया और पछियाव आसमान …
सुबह बहुत उदास थी और मेरे भाड़े के कमरे में धूप के तंतु ओढ़े दूर तक पसर आई थी कोई किसी से कुछ नहीं कह रहा था दरवाज़े के …
बहुत दिनों तक नहीं सुनी आम की सबसे निचली डाली पर पसरी कोयल की कूक बहुत दिनों तक चलता रहा नाक की सीध में नहीं देखा आयें-बाएँ- दायें नहीं …
सूरज के डूबने और उगने के बीच मैं तैयार कर लेना चाहता हूँ रौशनी के मुट्ठी भर बीज जिन्हें सवेरा होते ही दफना सकूँ मैं धरती के सबसे उर्वर …
तवांग के ख़ूबसूरत पहाड़ों से उपजते हुए… वो आसमान जिसने भरे हुए महानगर में दौड़ाया था मुझे जो अपने महत्त्वाकाँक्षी दरातों से रोज़ मेरी आत्मा में एक खाई चीरता …
तवांग के ख़ूबसूरत पहाड़ों से उपजते हुए… आगे – पीछे ऊपर – नीचे और तो और बीच में भी पहाड़ ही है जिसपर मैं इस वक़्त बैठा हुआ हूँ …
तवांग के ख़ूबसूरत पहाड़ों से उपजते हुए… सामने पहाड़ दिनभर बादलों के तकिए पर सर रखे ऊँघते हैं और सूरज रखता है उनके माथे पर नरम-नरम गुलाबी होंठ तेज़ …
प्यार करने वाले अबोध भेड़ शावकों की तरह होते हैं कसाई की गोद में भी चढ़ जाते हैं और आदत से मजबूर बेचारे भेडिये की थूथन से भी नाक …
सिर्फ़ तुम्हारी बदौलत भर गया था अप्रैल विराट उजाले से हो रही थी बरसात अप्रैल की एक ख़ूबसूरत सुबह में चाँद के चेहरे पर नहीं थी थकावट रातों के …