Category: दिनकर कुमार
एक लहर बहाकर ले जाती है मुझे साथ ही बहकर जाती है उदासी कुंठाएँ पाने और खोने की पीड़ा वायलिन वादक की आँखों से टपकती संवेदना हौले से अपनी …
विदर्भ में ढलती नहीं है शोक में डूबी हुई रात पिता की तस्वीर थामे हुए बच्चे असमय ही नजर आने लगते हैं वयस्क विधवाओं की पथराई हुई आंखों में …
रात भर क्रंदन करती है एक स्त्री रात भर चाँदनी का मैलापन समाया रहता है मेरी आँखों में सपने में वैशाख भूपेन हजारिका का गायन बन जाता है गुलमोहर …
यह मेरा जनपद है विषाद को पीता है वेदना को निगलता है धुंध में सिसकता है मेरे जनपद में केवल अभाव का लोकगीत गाया जाता है सरसों के फूल …
मैं अपकी भावनाओं का अनुवाद बनना चाहता हूँ दर्द से भीगे हुए शब्दों को सही-सही आकार देना चाहता हूँ मैं आपके क्रोध को तर्कपूर्ण और आपके क्षोभ को बुद्धिसंगत …
मायावी चैनलों से चौबीस घंटे टपकता रहे लहू फिर भी दर्शकों में प्रतिक्रिया नहीं होती लहू और चीख के दृश्यों ने दर्शकों की संवेदनाओं को नष्ट कर दिया है …
हमारे रसोईघर में भी रहने लगा है भूमंडलीकरण अनाजों के साथ अदृश्य रूप से लिपटा हुआ आयातित गेहूं और दाल और दूसरी तमाम चीज़ें कराती है अहसास उसकी उपस्थिति …
निम्न मध्यम वर्ग का आदमी सहमा हुआ पड़ा है जीवन के चौराहे पर सभी दिशाओं से उसे घूर रहे हैं तरह-तरह के लुटेरे उसे बरगलाने के लिए ठगों ने …
दुनिया की सबसे हसीन औरत गरीबी की रेखा पर चढ़कर मुस्कुराती है ठंडे चूल्हे की तरह सर्द हैं उसके होंठ असमय ही वृद्धा बन जाने वाली बच्ची से मिलती …
जो भी आए लौटकर नहीं गए लौटने की अभिलाषा बची रही बचा रहा अपनी जड़ के प्रति मोह अपने मूल परिवेश को दोबारा पाने का आकर्षण जो भी आए …
जो चूल्हे कभी ठीक से सुलगे नहीं उन चूल्हों ने चखा बारूद का स्वाद पंचायत की पथराई आँखें पढ़ती नहीं भारतीय दंड संहिता की पहेलियाँ लक्ष्मणपुर बाथे हो या …
ऋण के मेले में सजाई जाती हैं आकांक्षाएँ पतंग की तरह उड़ाये जाते हैं सपने मोहक मुस्कुराहट का जाल फैलाया जाता है और मध्यवर्ग का आदमी हँसते-हँसते शिकार बन …
इस आत्महत्या के युग में कैसे खिलते हैं फूल मंडराते हैं भँवरे गाती है कोयल इस आत्महत्या के युग में कैसे नदी जाकर मिलती है सागर से कैसे लहरें …