Category: दिनेश सिंह
राजपाट छोड़कर गए राजे-महाराजे हम उनके कर्ज पर टिके देहरी-दरवाजे चौपड़ ना बिछी पलंग पर मेज़ पर बिछी पैरों पर चाँदनी बिछी सेज पर बिछी गुहराते रोज़ ही रहे …
खिली धूप तुझको कह देने से चेहरा-चेहरा चिराग़ हो गया । तुझको चन्द्रमुखी कह दिया सारा घर आग-आग हो गया । सावन की धूप या कुआँर की धूप नहीं …
गाँव से लौटे हुए सपने चुरा कर साथ लाए फूल सरसों के! गुल ने पूछा गली की धूल ने पूछा- कहो क्या हाल है ? वहाँ से लेकर यहाँ तक …
सब जुटे हैं खिलाने में फूल गूलर के भूलकर रिश्ते पुराने प्रिया-प्रियवर के गगन के मिथ से जुड़ा है चाँद तारे तोड़ना या कि उनकी दिशाओं का मुँह पकड़कर …
लो वही हुआ जिसका था ड़र ना रही नदी, ना रही लहर। सूरज की किरन दहाड़ गई गरमी हर देह उघाड़ गई उठ गया बवंड़र, धूल हवा में अपना …
व्यूह से तो निकलना ही है समर करते हुए रण में बसर करते हुए । हाथ की तलवार में बाँधे क़लम लोहित सियाही सियासत की चाल चलते बुद्धि कौशल …
अक्सर क्या होता मुझको जो मन ही मन शर्माने लगता तुम रोती, मैं गाने लगता तुम घर मैं कितना खटती हो कितने हिस्सों में बटती हो कड़ी धूप-सी सबकी …
ताल से डरती मछलियाँ जाल से डरती नहीं हैं तडफड़ाती यों- मछेरे लोच पर कुर्बान जाएँ मुटि्ठयों में फिसलतीं उद्दाम बलखाती अदाएँ स्वाद उनका जान लें सब साँस भी …
जाने कैसे हुआ कि प्रिय की पाती पढ़ना भूल गए दायें-बायें की भगदड़ में आगे बढ़ना भूल गए नित फैशन की नये चलन की रोपी फ़सल अकूते धन की …
बहुत दिन के बाद देखा है बहुत दिन के बाद आए हो यह तमाशा कहाँ देखा था जो तमाशा तुम दिखाए हो फूल के दो चार दिन होंगे कसे …
फिर कदम्ब फूले गुच्छे-गुच्छे मन में झूले पिया कहाँ? हिया कहाँ? पूछे तुलसी चौरा, बाती बिन दिया कहाँ? हम सब कुछ भूले फिर कदम्ब फूले एक राग, एक आग …
प्रश्न यह है- भरोसा किस पर करें एक नंगी पीठ है सौ चाबुकें बचाने वाले कभी के जा चुके हम डरें भी तो भला कब तक डरें स्वप्न हमसे …
मैं नैया मेरी क़िस्मत में लिक्खे हैं दो कूल-किनारे पार उतारूँ मैं सबको मुझको ना कोई पार उतारे जीवन की संगिनी बनी है बहती नदिया – बहता पानी क्या …
कई रंग के फूल बने काँटे खिल के नई नस्ल के नये नमूने बेदिल के आड़ी-तिरछी टेढ़ी चालें पहने नई-नई सब खालें परत-दर-परत हैं पँखुरियों के छिलके फूले नये- …
शीत की अंगनाइयों में धूप के नखरे बढ़े बीच घुटनों के धरे सिर पत्तियों के ओढ़ सपने नीम की छाया छितरकर कटकटाती दाँत अपने गोल कंदुक के हरे फल …
रहते हैं अपने घर में उनके घर की कहते हैं मन नद्दी-नालों में कितने परनाले बहते हैं कितना पानी हुआ इकट्ठा बस्ती में आबादी में बहकर आया ताल-पोखरे होकर …
सिर पर सुख के बादल छाए दुख नए तरीके से आए घर है, रोटी है, कपडे हैं आगे के भी कुछ लफड़े हैं नीचे की बौनी पीढ़ी के, सपनों …
नये समय की चिड़िया चहकी बहकी हवा बजे मीठे स्वर सारंगी के तारों जैसी काँप रही जज़्बातों की लर छुप-छुपकर मिलती रहती है अपने दूजे ख़सम यार से बचे …
वैश्विक फलक पर गीत की सम्वेदना है अनमनी तुम लौट जाओ प्यार के संसार से मायाधनी यह प्रेम वह व्यवहार है जो जीत माने हार को तलवार की भी …
समय में ही समय का बनकर रहूँ नींव रख दूँ या नए दिन की रात-दिन में फ़र्क कोई है कहाँ बस, उजाला बीच की दीवार था ढह गया जो …
पीपल के पके पात पंछी पतझार के, थोड़ी ऋतु और अभी बाक़ी है उड़ने दो छंद ये बहार के । फूल-फूल अगवानी शूल, खिंची पेशानी मौसम का जाने कब …
ओ, आँगन की बेल भला तुम कब तक फूलोगी ? बिटिया ने पूछा- जल्दी-जल्दी कैसे बढ़ती हो ? तुम पकड़ तने को जकड़, पेड़ पर कैसे चढ़ती हो ? तुम अभी बेल …
कोई चाहत भीतर-भीतर छिप-छिपकर अब भी रोती है ओ रे मेरे मन पागलपन की भी कोई हद होती है तेरे वे सब हँसी ठहाके कौन ले गया, कहाँ चुरा …
आ गए पंछी नदी को पार कर इधर की रंगीनियों से प्यार कर उधर का सपना उधर ही छोड़ आए हमेशा के वास्ते मुँह मोड़ आए रास्तों को हर …
दर्द के हम भगीरथ तप-बल बढ़ाकर नदी का उत्सव बने आँसू बहाकर उजाले की शक्ल में पसरा अँधेरा इसी करतब पर हुआ है यह सवेरा अर्घ्य देते सूर्य को …