Category: दिलीप शाक्य
ये किसके जासूस हैं छिपकर बैठ गए हैं हमारे बैठने खाने और सोने के कमरों में कि हमारी नींद तक से चली गई है हमारे दालानों बरामदों और खलिहानों …
समय के दलदल में डूबता है सभ्यता का जंग लगा पहिया किनारे खड़ा रोबोट देखता है चुपचाप निर्विकार ख़ला में तैरती हैं पक्षियों के टूटे हुए पंखों की उदास …
कितनी नमी थी इबारत में पढ़ते ही भीग गईं आँखें आँखों में फैल गई झील एक चल निकलीं यादों की नावें पानी में पाँव डाल बैठा रहा समय किनारे …
उसकी देह उसकी भाषा को रौंद कर आगे निकल आई टूटकर बिखर गया उसके लिबास का कसा हुआ वाक्य छिटक कर दूर जा गिरे नींद में हँसते हुए शब्द …
किसी हसीन फूल की तरह उमगना था देह को बहना था पहाड़ी दर्रों के बीच किसी रुपहली झरने-सा उदास कमरे में पड़ी है शिथिल किसी उतरे हुए लिबास की …
एक चाकू की दस्तक से टूट कर बिखर गया हिज़्र कि अन्धेरी रात में वस्ल की चांदनी का रुपहला ख़्वाब होटल की अलसाई रौशनी में ख़ून के धब्बों से …