Category: धीरेन्द्र सिंह काफ़िर
रात चले, तू जले ऐ ज़िन्दगी तेरा क्या है आई है तो जाएगी, ऐ ख़ुशी तेरा क्या है मै बाशिंदा उस शहर का, जिसे वक़्त नहीं सफहों में दबी …
मेरुप्रष्ठ से एक रेखा नभो-बिंदु पर आ गिरती है एक विशिष्ठ समय का अवलोकन वो सात रंग से करती है आँख मूंदते काली नीली आँख खोलते सतरंगी चुप-चाप खिंची …
अश्क उतारे हैं पलकों से कई शबें गुज़र गईं अपने जिस्म के एक गोसे में तुम्हारे नाम के रोगन की एक गुल्लक बंद है तकमील होकर खुलती है तो …
कुतर के दाँतों से मिटटी की मोटी गँठाने… तबस्सुम खोल के तुतला के कहती है ‘अब्बू अब्बू, अम्मी अम्मी’ कानो में जैसे फ्लूट बजा हो पेशानी पे उसकी लब …
बासठ के हो गए हो झुर्रियाँ देखी हैं आईने में कभी? अब भी स्नो-पाउडर लगाते हो नहीं रही वो तुम्हारी गोरी चिट्टी शकल खाँसते बहुत हो अब ये सिगार …
वो हिज्र कि रातें वो विसाल कि रातें रोज़ की तरह तन्हा-ऐ-हाल कि रातें डूब जाएँ या फिर, बह जाएँ ये कहीं ना मिले इस तरह की बवाल की …
नींद के तालाब में डूब रहा हूँ एक कतरा कुरेदा तो भँवर आ गया अब ये सर नहीं जाता उसकी गहराई में हथेली जो छप से मारता हूँ पानी …
दस्त-ऐ-ज़मील-ऐ-तरबखेज मेरी माँ के थे उन हरेक पल वो साथ जो मेरे इम्तहाँ के थे हरेक सिम्त समेट दी कि हो जाऊँ कामराँ वगरना कल तक सब कहाँ के हम कहाँ …
तुम डुबो दो अपना जिस्म पानी में तो खुल जाएँ अकदे कई तुम अपनी जुबां खोलो तो सही कितनो की हतक हुई है तुमसे तुम्हारा जिस्म पानी में घुलता …
जीवन धारा बड़ी अपारा जिसने खींचा-तानी की उसी को इसने दे मारा जीते-जीते वर्षों हो गए मरते कटते अर्शों हो गए खूब मचाई तिगदम-तिगडी किस्मत बन-बन के बिगड़ी हो …