Category: धर्मेन्द्र पारे
लौटकर आना चाहता हूं बार बार इसी धरती पर इन्हीं इन्हीं लोगों के बीच इन्हीं गांवों इन्हीं मैदानों इन्हीं दुख सुख मित्रता शत्रुता रिष्तों नातों के बीच अबके जाऊॅंगा …
यहीं कहीं बिखरे हैं मेरे पुरखे पुरखों के भी पुरखे यहीं कहीं हैं मेरी माताएँ सती उनकी अस्थियाँ ही ऊर्जा है इस धरा की । लौटूंगा एक दिन बहुत …
स्कूल बन्द होने पर बहुत ख़ुश होते हैं बच्चे इतवार ख़ुशी का दिन होता है उनका कैरियाँ पक जाने पर शिक्षकों के नाम ले-ले लेकर पत्थर फ़ेंकते हैं वे …
गुलेल हैं कुछ कुछ पत्थर हैं इशारे हैं कुछ लोग फ़क़त दरख़्त हूँ मैं सनसनाते पत्थर तार-तार कर रहे हैं पत्ते मेरे लहूलुहान है माथा मेरा चिड़ियों को आकाश …
यह गाय सिर्फ़ दूध नहीं थी हमारे लिए उपला कंडा भी नहीं थी धर्म पूजा भर नहीं थी यह गाय चमड़ा तो कभी नहीं थी मेरा बचपन बीता था …
कहो कहां हो आमेना? शब्दों से बहुत प्यार करती थी क्या शब्दों में ही खो गई ? बहुत से शब्दों को मैंने पुकारा आमेना उन लफ्जों के भीतर से तुम …
तुम तो मुझे भूल चुकी होगी विस्मृति के बाज़ार में मैं अब तक नहीं भूला हूँ तुम्हें मेरे पास आख़िरी सिक्का है याद का जिसे हर दुर्दिन में सम्भाल …
खो गई है किसी की गाड़ी और किसी का गन्तव्य किसी को पता नहीं है मंज़िल का कोई मंज़िल की आस में बैठा है उनींदा कोई सब कुछ गंवाकर …