Category: धनंजय सिंह
यद्यपि है स्वीकार निमंत्रण तदपि अभी मैं आ न सकूँगा फूल बनूँ, खिलकर मुरझाऊँ मेरे वश का काम नहीं है जिसके आगे पड़े न चलना ऐसा कोई धाम नहीं …
हमने कलमें गुलाब की रोपी थीं पर गमलों में उग आई नागफनी जीवन ऐसे मोड़ों तक आ पहुँचा आ जहाँ हृदय को सपने छोड़ गए मरघट की सूनी पगडंडी …
स्वप्न की झील में तैरता मन का यह सुकोमल कमल चंद्रिका-स्नात मधु रात में हो हमारा-तुम्हारा मिलन दूर जैसे क्षितिज के परे झुक रहा हो धरा पर गगन घास …
घर की देहरी पर छूट गए संवाद याद यों आएँगे यात्राएँ छोड़ बीच में ही लौटना पड़ेगा फिर-फिर घर यह आँगन धन्यवाद देकर मन ही मन यों मुस्काएगा यात्राएँ …
आज पहली बार मैंने, मौन की चादर बुनी है काट दो यदि काट पाओ तार कोई एक युग से ज़िन्दगी के घोल को मैं एक मीठा विष समझ कर …
हमने तो अनुभव के हाथ बेच दिए हैं मीठे सपने सूरज के छिपने के बाद हुए बहुत मौलिक अनुवाद सुबह लिखे पृष्ठ लगे छपने स्वर्ण कलश हाथ से छुटे …
गीतों के मधुमय आलाप यादों में जड़े रह गए बहुत दूर डूबी पदचाप चौराहे पड़े रह गए देखभाल लाल-हरी बत्तियाँ तुमने सब रास्ते चुने झरने को झरी बहुत पत्तियाँ …
आकुलता को नए-नए आयाम दे दिए मन के आसपास महकाकर मधु-गंधाएँ एक शब्द के लिए गीत का ताना-बाना कौन बुनेगा बुन भी लें तो मनोयोग से रुदन हमारा कौन …
कौन किसे क्या समझा पाया लिख-लिख गीत नए । दिन क्यों बीत गए ! चौबारे पर दीपक धरकर बैठ गई संध्या एक-एक कर तारे डूबे रात रही बंध्या । यों …
झाँकते हैं फिर नदी में पेड़ पानी थरथराता है यह नुकीले पत्थरों का तल काटता है धार को प्रतिपल और तट की बाँबियों को छेड़ फिर कोई संपेरा गुनगुनाता …
भाव-विहग उड़ इधर-उधर दुख दाने चुग आए मन पर घनी वनस्पतियों के जंगल उग आए चीते-जैसे घात लगाए कई कुटिलताएँ मुग्ध हिरन की आँखों का संवेदन समझाएँ किस-किस बियाबान …
दायित्व पंखों में बांधकर पहाड़ उड़ने को कह दिया गया। ध्वजारोहण शौर्य शांति और समृध्दि को काले पहिए से बांधकर बाँस पर लटका दिया गया है मेरे देश में! …
मैं धरा-गगन दोनों से छूट गया संपर्क संचरण-ध्रुव से टूट गया कक्षा से भटका हुआ उपग्रह हूँ गिरना तो निश्चित है लेकिन कब, कहाँ, कौन जाने उल्काओं से टकराकर …