Category: देवीप्रसाद मिश्र
हरिजन के हरि पूज्य ऊँचे सिंहासन पर जन ख़ून-ख़ून कँटीले कुशासन पर ।
यह शहर एक हादसे से गुज़रने वाला है देवता यहाँ बढ़ रहे हैं।
दिमाग़ के जंगल कुछ साफ़ हुए किन्तु दोनों हथेलियों पर घास उग आई ।
शिवलिंग-सी सदियों से मान्य, पूज्य किन्तु जड़ निस्तेज निष्क्रिय निर्वीर्य!
कहते हैं वे विपत्ति की तरह आए कहते हैं वे प्रदूषण की तरह फैले वे व्याधि थे ब्राह्मण कहते थे वे मलेच्छ थे वे मुसलमान थे उन्होंने अपने घोड़े …
एक मामूली कविता लिखने का मज़ा ही कुछ और है एक ऐसी कविता जो अंगूठे के बारे में हो या अचानक शुरू हो गई शाम के बारे में या …
पड़ताली तर्जनी हमारे पास है औ’ दिखाते हैं वे अंगूठा-समाधान !
वो नींद थी जो सूखे-से पेड़ से टिककर आ जाती है वो नींद थी जो रूप निहारते हुए आती है तारे को टकटकी लगाकर देखते हुए आग तापते हुए …
गांधी बाबा आप यह नहीं कह सकते कि आपकी कोई चीज़ हमने नहीं अपनाई, आपकी लाठी हमें बहुत पसन्द आई।