Category: देवेन्द्र रिणवा
हाँ बोलने में जितनी लगती है ठीक उससे दुगुनी ताक़त लगती है नहीं बोलने में हाँ बोलना यानी शीतल हवा हो जाना नहीं बोलना यानी गरम तवा हो जाना …
जैसे याद नहीं आता कि कब पहनी थी अपनी सबसे प्यारी कमीज़ आख़ि़री बार कि क्या हुआ उसका हश्र? साइकिल पोंछने का कपडा बनी छीजती रही मसोता बन किसी …
यह जो तरल है इसमें गति भी है, शक्ति भी बहता आया है यह सदियों से हमारे मन, मस्तिष्क में सींचता आया है सम्बन्धों को जरूरत पड़ने पर तोड़ा …
रात एक लम्बी जेल सज़ा नींद का न आना ऐसे में धीरे से बदलना करवट दर्द को जज़्ब कर जाना रोक देना कराह को होठों की सीमा के अन्दर …
अन्धेरे से बनी होती है इसकी देह जितना तेज़ प्रकाश उतनी गहरी परछाईं इतनी डरपोक और शातिर कि आँख नहीं मिलाती ठीक पीछे खड़ी होती है दुबक जाती है …
दो या तीन लोग जमा करते हैं घास-फूस, रद्दी कागज़, टूटे खोखे, गत्ते, छिलपे घिसे टायर और तमाम फालतू चीज़ें जलाया जाता है अलाव एक-एक कर जुटते हैं लोग …
हवा, पानी, मिट्टी आग और आकाश ही नहीं शब्द भी है देह की संरचना में शब्द हवा को गति की पानी को शीतलता की मिट्टी को उर्वरा की और …