Category: देवेन्द्र कुमार
“मेरी आखों से ये छाला नहीं जाता मौला , इनसे तो ख़्वाब भी पाला नहीं जाता मौला , बख्श दे अब तो रिहायी मेरे अरमानों को , मुझ से …
हम ठहरे गाँव के बोझ हुए रिश्ते सब कन्धों के, पाँव के भेद-भाव सन्नाटा ये साही का काँटा सीने के घाव हुए सिलसिले अभाव के सुनती हो तुम रूबी …
हडि्डयों का पुल है शिराओं की नदी है इस सदी से भी अलग कोई सदी है आज की कविता अंधेरे की व्यथा है फूली है मटर लाल-लाल पियराई सरसों …
पर्वत के सीने से, झरता है झरना हमको भी आता है, भीड़ से गुज़रना । कुछ पत्थर, कुछ रोड़े कुछ हंसों के जोड़े नींदों के घाट लगे कब दरियाई …
मटमैली गीली संध्याएँ । सूरज बुझा बैंगनी, नीला बीत गया दिन पीला-पीला हल्के हाथों के तकिए पर सिर रखकर सो गई हवाएँ । टूटे तारों का विज्ञापन खोया-खोया-सा अपनापन …
धूप में तन कर खड़े हैं पेड़ । अँधेरे में ख़ासकर जो बन गए थे, ऊँट-घोड़ा-गाय बकरी-भेड़ । पत्तियों का मुरैठा बाँधे शाख है या हल कोई काँधे यह …
चलो चलें हो लें, धन खरियों के देश धान परियों के देश । आगे-आगे पछुवा पीछे पुरवाई, बादल दो बहनों के बीच एक भाई, बरखा के वन, तड़ित-मछरियों के …
यह अगहन की शाम ! सुबह-सुबह का सूर्य सिन्होरा सोना, ईगुर, घाम । सोलह डैनों वाली चिड़िया रंगारंग फूलों की गुड़िया कहीं बैठ कर लिखती होगी चिट्ठी मेरे नाम । …
झर रही हैं पत्तियाँ झरनों सरीखी स्वर हवा में तैरता है । यहाँ कोई फूल था शायद यहीं इस डाल पर तुमको पता है ? ख़्वाहिशों की इमारत थी ढह …
एक पेड़ चाँदनी लगाया है आँगने फूले तो आ जाना एक फूल माँगने ढिबरी की लौ जैसी लीक चली आ रही बादल का रोना है बिजली शरमा रही मेरा …
गेंदे के फूल खिले खिले फूल गेंदे के । टूसे थे पात हुए जन-जन के हाथ हुए अपनी तो पूंजी है इतनी-सी, ले-दे के । जो भी थे सह …
कहाँ गए वे दिन रोबीले ! रात उदासी के जंगल में ये चांदी के तार कँटीले । रेजा-रेजा, गाहे-गाहे पीठ-पीछे चुगली खाते घर-आंगन, रस्ते-चौराहे तुम कब के थे चांद हठीले …
आमों में बौर आ गए डार-पात फुदकने लगे कब के सिर मौर आ गए । खुली पड़ी धूप की किताब रंगों के बँट रहे खिताब जाँबाजों की बस्ती में …
बौरों के दिन दादी-माँ के हाथों कौरों के दिन । पत्तों के हाथ जुड़े ये आँखों के टुकड़े कितने अनुकूल हुए औरों के दिन । पेड़ों की छाया है …