Category: चन्द्रकान्त देवताले
आपस में भाइयों के मुँह पर चस्पा कर दिए हैं दुश्मनों ने अपने ख़ुद के मुखौटे हितैषियों के मुखौटे लगा दिए जल्लादों के चेहरों पर इस तरह अपनों और …
झुक-झुक कर चूम रहे फूल जिसके होंठों को बतास में महक रही चंदन-गंध जिसकी जगमगाती उपस्थिति भर से जिसकी पदचापों की सुगबुगाहट ही से झनझनाने लगे ख़ामोश पड़े वाद्य …
जिसकी आँखों से ओझल नहीं हो रहे खण्डहर समय के पंखों को नोंच अपने अकेलेपन को तब्दील कर रही जो पतझर में बिन दर्पण कुतर रही अपनी ही परछाईं …
छाती पर रात पहाड़ जैसी और आटे में नमक जितनी चुटकी भर नींद गुंडी में पानी नहीं कटोरी भर भी कोशिश कर रहा फिर भी उस अपने को देखने …
एक-दूसरे के बिना न रह पाने और ताज़िन्दगी न भूलने का खेल खेलते रहे हम आज तक हालाँकि कर सकते थे नाटक भी जो हमसे नहीं हुआ किंतु समय …
औद्योगिक मेले के बाद अब यह पुस्तकों का मेला लगा है अपने महानगर में, और भीड़ टूटेगी ही क़िताबों पर जबकि रो रहे हैं बरसों से हम, कि नहीं …
रेतीले मैदान के बीचोबीच हमेशा अपनी किसी गुमशुदा चीज़ को तलाशती हुई आँखों के साथ एक औरत सफ़ेद चट्टान की तरह खड़ी है उसके हाथों में ज़रूर टहनियों की …
सुख से पुलकने से नहीं रचने-खटने की थकान से सोई हुई है स्त्री सोई हुई है जैसे उजड़कर गिरी सूखे पेड़ की टहनी अब पड़ी पसर कर मिलता जो …
ज्वार से लबालब समुद्र जैसी तुम्हारी आँखें मुझे देख रही हैं और जैसे झील में टपकती है ओस की बूँदें तुम्हारे चेहरे की परछाई मुझमें प्रतिक्षण और यह सिलसिला …
पैदा हुआ जिस आग से खा जाएगी एक दिन वही मुझको आग का स्वाद ही तो कविता, प्रेम, जीवन-संघर्ष समूचा और मृत्यु का प्रवेश द्वार भी जिस पर लिखा …
पानी के पेड़ पर जब बसेरा करेंगे आग के परिंदे उनकी चहचहाहट के अनंत में थोड़ी-सी जगह होगी जहां मैं मरूंगा मैं मरूंगा जहां वहां उगेगा पेड़ आग का …
विकट कवि-कर्म जोखिम भरा उलटा-पुलटा हो जाता कभी-कभी धरती का रस निचोड़ने में मशगूल लोगों के ख़ुशामदी लालची धूर्त कपटी और हिंसक चरित्र को उजागर करने के लिए कवियों …
दुनिया का सबसे ग़रीब आदमी दुनिया का सबसे गैब इन्सान कौन होगा सोच रहा हूँ उसकी माली हालत के बारे में नहीं! नहीं !! सोच नहीं कल्पना कर रहा हूँ …
तेरे पास और नसीब में जो नहीं था और थे जो पत्थर तोड़ने वाले दिन उस सबके बाद इस वक़्त तेरे बदन में धरती की हलचल है घास की …
तुम्हें भूल जाना होगा समुद्र की मित्रता और जाड़े के दिनों को जिन्हें छल्ले की तरह अंगुली में पहनकर तुमने हवा और आकाश में उछाला था पंखों में बसन्त …
माँ की इश्वर से मुलाकात हुई या नहीं कहना मुश्किल है पर वह जताती थी जैसे इश्वर से उसकी बातचीत होते रहती है और उससे प्राप्त सलाहों के अनुसार …
बच्चों और युवाओं के भविष्य के लिए बहस में शामिल पिपलोदा के श्यामलाल गुरूजी सोच रहे हैं इतने बड़े नेक काम के लिए याद किया गया उन जैसा वे …
बहुत जरूरी है पहुँचना सामान बाँधते बमुश्किल कहते पिता बेटी जिद करती एक दिन और रुक जाओ न पापा एक दिन पिता के वजूद को जैसे आसमान में चाटती …
दिखाई दे रही है कई कई चीजें देख रहा हूँ बेशुमार चीजों के बीच एक चाकू अदृश्य हो गई अकस्मात तमाम चीजें दिखाई पड़रहा सिर्फ चमकता चाकू देखते के …
पत्थर की बैंच जिस पर रोता हुआ बच्चा बिस्कुट कुतरते चुप हो रहा है जिस पर एक थका युवक अपने कुचले हुए सपनों को सहला रहा है जिस पर …
तुम्हारी निश्चल आंखें तारों-सी चमकती हैं मेरे अकेलेपन की रात के आकाश में प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता ईथर की तरह होता है ज़रूर दिखाई देती होंगी नसीहतें …
माँ के लिए सम्भव नहीं होगी मुझसे कविता अमर चिऊँटियों का एक दस्ता मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है माँ वहाँ हर रोज़ चुटकी-दो-चुटकी आटा डाल देती है मैं …
कोई लय नहीं थिरकती उनके होंठों पर नहीं चमकती आंखों में ज़रा-सी भी कोई चीज़ गठरी-सी बनी बैठी हैं सटकर लड़कियाँ सात सयानी और कच्ची उमर की फैलाकर चीथड़े …
पपीते के पेड़ की तरह मेरी पत्नी मैं पिता हूँ दो चिड़ियाओं का जो चोंच में धान के कनके दबाए पपीते की गोद में बैठी हैं सिर्फ़ बेटियों का …
वे दिन बहुत दूर हो गए हैं जब माँ के बिना परसे पेट भरता ही नहीं था वे दिन अथाह कुँए में छूट कर गिरी पीतल की चमकदार बाल्टी …