Category: अरुण कमल
नहीं, मुझे अपनी परवाह नहीं परवाह नहीं हारें कि जीतें हारते तो रहे ही हैं शुरू से लेकिन हार कर भी माथा उठ रहा और आत्मा रही जयी यवांकुर-सी …
वह बार-बार भागती रही ज्यों अचानक किसी ने नींद में पुकारा कभी किसी मंदिर की सीढ़ी पर बैठी रही घंटों और फिर अंधेरा होने पर लौटी कभी किसी दूर …
शुरू में कुछ भी नहीं था थी बस मिट्टी पानी पुआल और पटरे-खपच्चियाँ काठ के चौड़े पटरे पर दो-तीन खपच्चियाँ ठोंकी गईं फिर चारों ओर लपेटा गया खाली पुआल …
पहले एक क़िताब की दुकान पर काम पकड़ा हफ़्ते-भर रहा फिर बैठ गया बोला, मन नहीं लगा; जब रात भर पेट गुड़गुड़ाया तो फिर एक प्रेस में लग गया …
खुरच रहा है चारों तरफ से देखने को कि देखें क्या है अन्दर कि देखें यह नाटा आदमी क्या सोच रहा है भीतर-भीतर क्या पक रहा है कुम्हार के …
तप रहा ब्रह्मांड ऎसा रौद्र ऎसी धाह रेत इतनी तप्त कि तलवे उठ रहे पड़ते, रेंगनी काँटॊं के फूल पीले और उनकी भाप भरी गंध और गिरगिटों का रंग …
जब उन्होंने कहा कि मेरी बात से उनकी भावना को चोट पहुँची है और उनका मर्म आहत हुआ है तो मैंने एक बार आँख फेर उन सब को देखा …
मैंने उसे ज़ोर से बजाया कान के पास तो मेरे भीतर हलचल हुई ख़ूब और बंदी पानी तीन आँखों तक आया रास्ता फोड़ता उतने बड़े घर से भाग खोली …
(नज़ीर अक़बराबादी के प्रति) न वहाँ छतरी थी न घेरा बस एक क़ब्र थी मिट्टी से उठती मानों कोई सो गया हो लेटे-लेटे जिस पर उतनी ही धूप पड़ती …
घूमते रहोगे भीड़ भरे बाज़ार में एक गली से दूसरी गली एक घर से दूसरे घर बेवक़्त दरवाजा खटखटाते कुछ देर रुक फिर बाहर भागते घूमते रहोगे बस यूँ …
मैं वहाँ भी गया जहाँ नदी सागर से मिलती थी वहाँ भी जहाँ मैदान पहाड़ों में ढलते थे मैं वहाँ भी गया जहाँ झीलों का जल मीठा था और …
जैसे रो-धो कर चुप हो हाथ-मुँह धो अंतिम हिचकी भर वापस चूल्हे के पास लौटती है नई वधू भाई के जाने के बाद वैसे ही लौटो तुम भी बहुत …
लगातार बारिश हो रही है लगातार तार-तार कहीं घन नहीं न गगन बस बारिश एक धार भींग रहे तरुवर तट धान के खेत मिट्टी दीवार बाँस के पुल लकश …
वह समझ नहीं पाती क्या करे रिश्ते में बड़ी पर हैसियत छोटी यहाँ इतने नौकर-चाकर और वह ख़ुद एक सेठ के घर महराजिन अब आरम्भ होगी विधि जो बड़े …
एक दिन बैठे-बैठे उसने अजीब बात सोची सारा दिन खाने में जाता है खाने की खोज में खाना पकाने में खाना खाने खिलाने में फिर हाथ अँचा फिर उसी …
और मुझे ही तुड़ाना है आमरण अनशन आज चौदहवाँ दिन है और आज ही चार बजे शाम वहीं अस्पताल में मुझे देना है हाथ में मोसम्बी का रस जो …
बस इसलिए कि तुम्हारे देश में हूँ और तुम मुझे दो मुट्ठी अन्न देते हो और रहने को कोठरी मैं चुप्प रहूँ? इतना तो मुझे वहाँ भी मिल जाता …
मैंने देखा साथियों को हत्यारों की जै मनाते मेरा घर नीलाम हुआ और डाक बोलने आये अपने ही दोस्त पहले जितना खुश तो नहीं हूँ मैं न हथेलियों में …
अपने प्रधान इतने जनतंत्री थे कि जब भी फ़ोटो लिया जाता वह अपना एक पैर आगे कर देते, क्योंकि चेहरे के मुकाबले पैरों की निरन्तर उपेक्षा रही है फ़ोटो …
जब अपने प्रधान विदेश गए तो एक राजधानी के महापौर ने एक भव्य समारोह में उन्हें नगर-कोष की स्वर्ण-कुंजी भेंट की सम्मान में अपने प्रधान रात भर सो नहीं …
अपने प्रधान को नए बने पुल का उद्घाटन करना था और जैसी प्रथा थी पुल पर सबसे पहले उन्हीं को चलना था प्रधान ने एक बार रस्ते को ताका …
पहले खेत बिके फिर घर फिर जेवर फिर बर्तन और वो सब किया जो ग़रीब और अभागे तब से करते आ रहे हैं जब से यह दुनिया बनी पत्नी …
मैं तुम्हारा अतिथि हूँ आज तुम्हारे देश से आया इस शहर की आँत में किराये की झोंपड़ी में बैठा तुम्हारे हाथ की चाय सुड़कता पीछे नाला है दाहिने मैदान …
भौजी, डोल हाथ में टाँगे मत जाओ नल पर पानी भरने तुम्हारा डोलता है पेट झूलता है अन्दर बँधा हुआ बच्चा गली बहुत रुखड़ी है गड़े हैं कंकड़-पत्थर दोनों …
और वे मेरी ही ओर चले आ रहे थे तीनों एक तेज़ प्रकाश लगातार मुझ पर पुत रहा था जैसे बवंडर में पड़ा काग़ज़ का टुकड़ा मैं घूम रहा …