Category: अनिमेष चंद्रा ‘माहताब’
आखरी सांस तक लड़ता रहा. आपनी उंगली से हवा पे लिखता रहा उसे. जितनी देर सांस चली तरसता रहा घोलता रहा खून की सिहाई और डॉक्टर्स सुलाते …
किसी दिन आके हाथ फैलाये खड़े हो जायेंगे मेरी नींद के टुकड़े जिन्हें तकिये के निचे छुपाके रखता हूँ जिन्हें रात को उठ उठ कर देखता हूँ कहीं …
सर बहूत भारी सा लगता है। माँ भी नही है पास के जाके थोड़ी देर लेट जायूं उनकी गोद में। सफ़र के दिन सुबह माँ की गोद …
हमेशा मेरे साथ है रहती हर बात पे है टोकती हर काम से है रोकती यह मत करो, वो मत खायो मुझे बड़ा है सताती घर में बिखरे …
माहौल की दुहाई देके जब देश छोड़कर आये थे दोस्ती, रिश्ते, नातें, घर सब तोड़कर आये थे. छोड़ आये थे गलियाँ और प्यारे खेत खलियान पड़ा रहा पीछे …
हमेशा मेरे साथ है रहती हर बात पे है टोकती हर काम से है रोकती यह मत करो, वो मत खायो मुझे बड़ा है सताती घर में बिखरे …
आँखों में फिर से ख्वाब सज़ाए सीने में कुछ अरमान दबाए आज फिर कुचे को चला….. यारों आज मैं घर को चला. कहीं से एक ठंडी सी हवा …
संभाबना के उच्याशा में खोये है इस मन का चैन रातों को न सो कर केवल सपना देखे हैं दो नैन । कभी ख़ुशी के साथ निमंत्रण, कभी विसर्जन …