Category: अमोल गिरीश बक्षी
बिनबुलाए तो नहीं कह सकता घर तो आप ही ने दिया है आप का तो हक है यह हम ने तो बस कर्ज़ लिया है आप तो हरसाल आते …
उम्मीद… जगता हुआ सूरज है उम्मीद… मंझा हुआ धीरज है राख में दबा अंगार है तितलियों का सिंगार है उम्मीद ओस की दौलत है मेहबूब की मिन्नत है सपनों …
सूरज को तो जैसे तैसे ढो लेते है पर चाँद संभले नहीं संभलता है रातभर कतरा कतरा कंबख्त तेरी यादे जहन पर मलता है डरावनी परछाईयों पर नाचता काला …
पके हुए बादलों पर वो नाचती लकीरे और भुनी हुई मिट्टी का महकना धीरे धीरे पानी को बोझ ढोते ढोते थककर थम जाना ठहाकों के कोलाहल से थर्राकर सहम …
कुछ ऐसे भी सपने है, जिनकी दास्तां अधूरी है मंज़िलों से इनमें बस, कुछ ही कदम की दूरी है कदम तो थमते नहीं पर फ़ासले बढ रहे है वक्त …
भर आए बादलों का दिल से कैसा रिश्ता है? बूँदों का ये जमघट क्यूं इस दिल में रिसता है? फिर हरी यादों से लम्हों की महक आती है गीली …
बापूजी, आपका नेकीवाला दरिया अब दिखता नहीं बेईमानी के बाज़ार में शायद आपका सच बिकता नहीं भर भर के खुशियां जेबों में तो रखी है पर वक़्त निकालकर शायद …
ओस में धुलकर, रोशनी में घुलकर मखमल का चोला है आई पहनकर चकाचौंद चारों दिशाओं में छाई बिखरे है मोती धरती पिघलकर अधखुले गुलाब दामन से लिपटे तितली …
हर कोशिश को अन्जाम की ही क्यू हद हो? हर दांव पर बस जीत की ही क्यूं ज़िद हो? जो ख़त्म न हो ऐसी ही दौड क्यूं? टहलकर भी …