Category: अमरनाथ श्रीवास्तव
असगुन के उल्कापातों में सारी रैन जागते बीती जो दिन उजले चंदन चर्चित उसके लिए उपस्थिति वर्जित हुईं कोयला स्वर्ण गिन्नियाँ कालिख हुई थैलियाँ अर्जित तीते रहे निबौरी सपने …
फांस जो छूती रगों को देखने में कुछ नहीं है रह न पाया एक सांचे से मिला आकार मेरा स्वर्ण प्रतिमा जहां मेरी है फंसा अंगार मेरा आंख कह …
जहां आंखों में रहा, आकाश का विस्तार मेरा वहीं मेरे पांव छूकर रोकता आधार मेरा फूल की कोमल पंखुरियों में बसी रंगत गुलाबी किसी युग का सत्य होगी किन्तु …
प्रत्यंचित भौंहों के आगे समझौते केवल समझौते। भीतर चुभन सुई की, बाहर सन्धि-पत्र पढ़ती मुस्कानें। जिस पर मेरे हस्ताक्षर हैं, कैसे हैं ईश्वर ही जाने। आंधी से आतंकित चेहरे …
लोग खड़े हैं इंतज़ार में अपनी अपनी बारी के कोई लौटाकर आया है बिल्ले मंसबदारी के घर घर जागे मंतर जादू कमरू और कमच्छा के बिन पानी बिरखे हरियाए …
मंज़िल-दर-मंज़िल पुण्य फलीभूत हुआ कल्प है नया सोने की जीभ मिली स्वाद तो गया। छाया के आदी हैं गमलों के पौधे जीवन के मंत्र हुए सुलह और सौदे अपनी …
प्यादे से वज़ीर बनते हैं ऐसी बिछी बिसात नये भोर का भ्रम देती है निखर गयी है रात कई एक चेहरे, चेहरों के त्रास औस संत्रास भीतर तक भय …
पुण्य फलीभूत हुआ कल्प है नया सोने की जीभ मिली स्वाद तो गया छाया के आदी हैं गमलों के पौधे जीवन के मंत्र हुए सुलह और सौदे अपना जड़ …
पीहर का बिरवा छतनार क्या हुआ, सोच रही लौटी ससुराल से बुआ। भाई-भाई फरीक पैरवी भतीजों की, मिलते हैं आस्तीन मोड़कर क़मीज़ों की झगड़े में है महुआ डाल का …
कहा चौधरानी ने, हंसकर देखा दासी का गहना `नाल मढ़ाने चली मेढकी इस `कलजुग’ का क्या कहना।’ पति जो हुआ दिवंगत तो क्या रिक्शा खींचे बेटा भी मां-बेटी का …
जहां-जहां मैं रहा उपस्थित अंकित है अनुपस्थिति मेरी। क्रान्ति चली भी साथ हमारे दोनों हाथ मशाल उठाये मेरे कन्धों पर वादक ने परिवर्तन के बिगुल बजाये सपनों में चलने …