Category: अहमद फ़राज़
तू पास भी हो तो दिल बेक़रार अपना है के हमको तेरा नहीं इंतज़ार अपना है मिले कोई भी तेरा ज़िक्र छेड़ देते हैं के जैसे सारा जहाँ राज़दार …
जिससे ये तबीयत बड़ी मुश्किल से लगी थी देखा तो वो तस्वीर हर एक दिल से लगी थी तन्हाई में रोते हैं कि यूँ दिल के सुकूँ हो ये …
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मुहब्बत का भरम रख तू भी तो …
जब तेरी याद के जुगनू चमके देर तक आँख में आँसू चमके सख़्त तारीक है दिल की दुनिया ऐसे आलम में अगर तू चमके हमने देखा सरे-बाज़ारे-वफ़ा कभी मोती …
अब नये साल की मोहलत नहीं मिलने वाली आ चुके अब तो शब-ओ-रोज़ अज़ाबों वाले अब तो सब दश्ना-ओ-ख़ंज़र की ज़ुबाँ बोलते हैं अब कहाँ लोग मुहब्बत के निसाबों …
किसी से दिल की हिक़ायत कभी कहा नहीं की, वगर्ना ज़िन्दगी हमने भी क्या से क्या नहीं की, हर एक से कौन मोहब्बत निभा सकता है, सो हमने दोस्ती-यारी …
ख़ुशबू का सफ़र छोड़ पैमाने-वफ़ाकी बात शर्मिंदा न कर दूरियाँ ,मजबूरियाँ,रुस्वाइयाँ, तन्हाइयाँ कोई क़ातिल ,कोई बिस्मिल, सिसकियाँ, शहनाइयाँ देख ये हँसता हुआ मौसिम है मौज़ू-ए-नज़र वक़्त की रौ में …
कुछ न किसी से बोलेंगे तन्हाई में रो लेंगे हम बेरहबरों का क्या साथ किसी के हो लेंगे ख़ुद तो हुए रुसवा लेकिन तेरे भेद न खोलेंगे जीवन ज़हर …
किताबों में मेरे फ़साने ढूँढते हैं, नादां हैं गुज़रे ज़माने ढूँढते हैं । जब वो थे तलाशे-ज़िंदगी भी थी, अब तो मौत के ठिकाने ढूँढते हैं । कल ख़ुद …
करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे वो ख़ार-ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिन्द मैं ज़ख़्म-ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे ये …
कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो बहुत बड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चालो तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है मैं जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ …
ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे तेरा मिलना भी जुदाई कि घड़ी हो जैसे अपने ही साये से हर गाम लरज़ जाता हूँ रास्ते में …
एक बार ही जी भर के सज़ा क्यूँ नहीं देते ? मैं हर्फ़-ए-ग़लत हूँ तो मिटा क्यूँ नहीं देते ? मोती हूँ तो दामन में पिरो लो मुझे अपने, आँसू हूँ …
उसने कहा सुन अहद निभाने की ख़ातिर मत आना अहद निभानेवाले अक्सर मजबूरी या महजूरी की थकन से लौटा करते हैं तुम जाओ और दरिया-दरिया प्यास बुझाओ जिन आँखों …
उसको जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ अब क्या कहें ये क़िस्सा पुराना बहुत हुआ ढलती न थी किसी भी जतन से शब-ए-फ़िराक़ ऐ मर्ग-ए-नागहाँ तेरा आना बहुत हुआ …
अल्मिया किस तमन्ना से ये चाहा था कि इक रोज़ तुझे साथ अपने लिए उस शहर को जाऊँगा जिसे मुझको छोड़े हुए,भूले हुए इक उम्रहुई हाय वो शहर कि …
इज़्हार पत्थर की तरह अगर मैं चुप रहूँ तो ये न समझ कि मेरी हस्ती बेग़ान-ए-शोल-ए-वफ़ा है तहक़ीर से यूँ न देख मुझको ऐ संगतराश! तेरा तेशा मुम्किन है …
आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा इतना मानूस न हो ख़िल्वत-ए-ग़म से अपनी तू कभी ख़ुद को भी …
लब तिश्न-ओ-नोमीद हैं हम अब के बरस भी ऐ ठहरे हुए अब्रे-करम अब के बरस भी कुछ भी हो गुलिस्ताँ में मगर कुंजे- चमन में हैं दूर बहारों …
अजब जूनून-ए-मुसाफ़त में घर से निकला था, ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था, ये कौन फिर से उन्हीं रास्तों में छोड़ गया, अभी अभी तो अज़ाब-ए-सफ़र …
हर्फ़े-ताज़ा की तरह क़िस्स-ए-पारीना कहूँ कल की तारीख़ को मैं आज का आईना कहूँ चश्मे-साफ़ी से छलकती है मये-जाँ तलबी सब इसे ज़हर कहें मैं इसे नौशीना कहूँ मैं …
तेरा क़ुर्ब था कि फ़िराक़ था वही तेरी जलवागरी रही कि जो रौशनी तेरे जिस्म की थी मेरे बदन में भरी रही तेरे शहर से मैं चला था जब …
अव्वल अव्वल की दोस्ती है अभी इक ग़ज़ल है कि हो रही है अभी मैं भी शहरे-वफ़ा में नौवारिद वो भी रुक रुक के चल रही है अभी मैं …
अब वो मंजर, ना वो चेहरे ही नजर आते हैं मुझको मालूम ना था ख्वाब भी मर जाते हैं जाने किस हाल में हम हैं कि हमें देख के …
संगदिल है वो तो क्यूं इसका गिला मैंने किया जब कि खुद पत्थर को बुत, बुत को खुदा मैंने किया कैसे नामानूस लफ़्ज़ों कि कहानी था वो शख्स उसको …