Category: अज्ञेय
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23/10/2016
अज्ञात कवि, अज्ञेय, अटल बिहारी वाजपेयी, अभिषेक उपाध्याय, ऋतुराज, ओमेन्द्र शुक्ला, धर्मेन्द्र कुमार निवातियाँ, नवल पाल प्रभाकर, राम केश मिश्र, शर्मन, शिशिर कुमार गोयल, सजन कुमार मुरारका
“आरक्षण की आग मे जल रहा हैं हिन्दुस्तान”,शिक्षा नौकरी पाने को बिक रहे हैं कई मकान,ठोकरे मिलती हैं यहा मिलता नही हैं ग्यान…. “आरक्षण की आग मे जल रहा …
मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने, मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ? काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है, …
नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं पुते गालों के ऊपर नकली भवों के नीचे छाया प्यार के छलावे बिछाती मुकुर से उठाई हुई मुस्कान मुस्कुराती ये आँखें …
सुख मिला : उसे हम कह न सके। दुख हुआ: उसे हम सह न सके। संस्पर्श बृहत का उतरा सुरसरि-सा : हम बह न सके । यों बीत गया सब : हम …
झींगुरों की लोरियाँ सुला गई थीं गाँव को, झोंपड़े हिंडोलों-सी झुला रही हैं धीमे-धीमे उजली कपासी धूम-डोरियाँ।
प्रात होते – सबल पंखों की मीठी एक चोट से अनुगता मुझ को बना कर बावली को – जान कर मैं अनुगता हूँ – उस विदा के विरह के …
मुड़ी डगर मैं ठिठक गया वन-झरने की धार साल के पत्ते पर से झरती रही मैने हाथ पसार दिये वह शीतलता चमकीली मेरी अंजुरी भरती रही गिरती बिखरती एक …
मलयज का झोंका बुला गया खेलते से स्पर्श से रोम रोम को कंपा गया जागो जागो जागो सखि़ वसन्त आ गया जागो पीपल की सूखी खाल स्निग्ध हो चली …
मेरी छाती पर हवाएं लिख जाती हैं महीन रेखाओं में अपनी वसीयत और फिर हवाओं के झोंकों ही वसीयतनामा उड़ाकर कहीं और ले जाते हैं। बहकी हवाओ ! वसीयत करने …
सिमट गयी फिर नदी, सिमटने में चमक आयी गगन के बदन में फिर नयी एक दमक आयी दीप कोजागरी बाले कि फिर आवें वियोगी सब ढोलकों से उछाह और …
शिशिर ने पहन लिया वसंत का दुकूल गंध बन उड़ रहा पराग धूल झूल काँटे का किरीट धारे बने देवदूत पीत वसन दमक उठे तिरस्कृत बबूल अरे! ऋतुराज आ …
डरो मत शोषक भैया : पी लो मेरा रक्त ताज़ा है, मीठा है हृद्य है पी लो शोषक भैया : डरो मत। शायद तुम्हें पचे नहीं– अपना मेदा तुम देखो, मेरा …
खोज़ में जब निकल ही आया सत्य तो बहुत मिले । कुछ नये कुछ पुराने मिले कुछ अपने कुछ बिराने मिले कुछ दिखावे कुछ बहाने मिले कुछ अकड़ू कुछ …
एक क्षण भर और रहने दो मुझे अभिभूत फिर जहाँ मैने संजो कर और भी सब रखी हैं ज्योति शिखायें वहीं तुम भी चली जाना शांत तेजोरूप! एक क्षण …
साँप ! तुम सभ्य तो हुए नहीं नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया। एक बात पूछूँ–(उत्तर दोगे?) तब कैसे सीखा डँसना– विष कहाँ पाया?
घिर रही है साँझ हो रहा है समय घर कर ले उदासी तौल अपने पंख, सारस दूर के इस देश में तू है प्रवासी! रात! तारे हों न हों …
जब आवे दिन तब देह बुझे या टूटे इन आँखों को हँसती रहने देना! हाथों ने बहुत अनर्थ किये पग ठौर-कुठौर चले मन के आगे भी खोटे लक्ष्य रहे …
इन्हीं तृण-फूस-छप्पर से ढंके ढुलमुल गँवारू झोंपड़ों में ही हमारा देश बसता है इन्हीं के ढोल-मादल-बाँसुरी के उमगते सुर में हमारी साधना का रस बरसता है इन्हीं के मर्म …
सिर से कंधों तक ढँके हुए वे कहते रहे कि पीठ नहीं दिखाएंगे– और हम उन्हें सराहते रहे। पर जब गिरने पर उनके नकाब उल्टे तो उनके चेहरे नहीं …
हरी बिछली घास। दोलती कलगी छरहरे बाजरे की। अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका अब नहीं कहता, या शरद के भोर की नीहार – …
मैंने पूछा यह क्या बना रही हो ? उसने आँखों से कहा धुआँ पोछते हुए कहा : मुझे क्या बनाना है ! सब-कुछ अपने आप बनता है मैंने तो यही जाना है …
सूप-सूप भर धूप-कनक यह सूने नभ में गयी बिखर: चौंधाया बीन रहा है उसे अकेला एक कुरर।
दो?हाँ, दो बड़ा सुख है देना! देने में अस्ति का भवन नींव तक हिल जाएगा- पर गिरेगा नहीं, और फिर बोध यह लायेगा कि देना नहीं है नि:स्व होना …
अब देखिये न मेरी कारगुज़ारी कि मैं मँगनी के घोड़े पर सवारी पर ठाकुर साहब के लिए उन की रियाया से लगान और सेठ साहब के लिए पंसार-हट्टे की …
दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब। तब ललाट की कुंचित अलकों- तेरे ढरकीले आँचल को, तेरे पावन-चरण कमल को, छू कर धन्य-भाग अपने को लोग मानते हैं सब के …