Author: विनय कुमार
वो बेकसूर थे बहा था रक्त जिनका वो नहीं जानते थे कि सरहद किसे कहते हैं और आज़ादी क्या है, वो नहीं जानते थे नेहरु और जिन्ना को, वो …
हाथ हरियाली का इक पल में झटक सकता हूँ मैं आग बन कर सारे जंगल में भड़क सकता हूँ मैं मैं अगर तुझको मिला सकता हूँ मेहर-ओ-माह से अपने …
वे जो कभी नहीं रहे मुसलमानों के मुहल्ले में गंदगी के डर से जिन्होंने अहमद, मुहम्मद या अली नहीं लगाया अपने बच्चों के नाम के साथ मक्का या मदीना …
निकल जाते हैं सपने किसी अनन्त यात्रा पर बार-बार की यातना से तंग आकर गीली आँखें बार-बार पोंछी जाएँ सख्त हथेलियों से तो चेहरे पर ख़राशें पड़ जाती हैं …
जब क़त्ल होता है एक निर्दोष इन्सान का निकल आते हैं उसके ख़ून की हर बूंद से बेशुमार हत्यारे,शातिर लुटेरे और निर्लज्ज बलात्कारी ये हत्याएँ करते हैं (कुछ लोग …
शंख और अज़ान की आवाज़ पर जागने वाला शहर करवट बदल कर सो गया है एक बार फिर भारत के मानचित्र पर किसी और देश का इतिहास रचने के …
फैल रहा है विषाक्त रक्त समाज की कटी-फटी धमनियों में सरहद पर खिंची रेखाओं में दौड़ रहा है निर्विघ्न विद्युत प्रवाह की तरह जिससे बल्ब जलाए जा सकते हैं …
आकाश के एक छोर से दूसरे छोर तक उड़ रही है रंगबिरंगी मौत पतंगों की तरह बल खाती हुई जिसकी डोर गली के मनचले लड़कों के हाथों में है। …
आदी हो चुके हैं ये शब्द नेताओं की भाषा बोलने के बदलते रहते हैं इनके अर्थ भी बदलते युग के साथ इनकी बदलती भाव भंगिमाओं से तंग आ चुके …
कितना ख़ून बह गया है कविता की कटी हुई नसों से गन्दी नालियों में गिर गए हैं कितने ही ऊँचे विचार शब्द मूर्छित पड़े हैं औेंधे मुँह फ़र्श पर …
कोई दोष नहीं दिया जा सकता अपनी ही चुनी हुई सरकार को सरकार के पास धर्म होता है अध्यात्म नहीं पुस्तकें होती हैं ज्ञान नहीं शब्द होते हैं भाव …
नहीं! आप नहीं समझा सकते मुझे जीने का मतलब! नहीं बता सकते सुबह उठकर कितनी दूर टहलना कितनी देर कसरत करना ज़रुरी है तन्दुरुस्त रहने के लिए खाने के …
कसमसाती शाम के खिलते बदन पर ये सितारों का लिबास जगमगाते शहर की ऊँची प्राचीरें क़ुमक़ुमों से भर गई हैं रौशनी ही रौशनी है हर तरफ़ तुम हो जहाँ …
अतीत की छाया जब वर्तमान पर पड़ती है जन्म लेता है इतिहास तानाशाहों के भय से या उन्हें प्रसन्न करने के लिए एक पूरे काल की ममी बना कर …
यहाँ अब शोर ही कोई न सरगोशी किसी की अगर कुछ है तो शायद हो यह ख़ामोशी किसी की बिला – नागा उसे खून आदमी का चाहिए अब हमें …
आदी हो चुके हैं ये शब्द नेताओं की भाषा बोलने के बदलते रहते हैं इनके अर्थ भी बदलते युग के साथ इनकी बदलती भाव भंगिमाओं से तंग आ चुके …
टूटी हुई बाँसुरी सूखे होंठों पर धरी है बरसों से टूटा हुआ गुलदान पड़ा है मेरे सामने फूलों की बिखरी पंखुड़ियाँ भी नहीं चुनी जा सकतीं टूटी हुई व्हील …
अगर स्वस्थ रहने का मतलब वातावरण का सारा ऑक्सीजन अपने फेफडे में भर कर अमर हो जाना है तो मुझे नही चाहिए यह ज़िन्दगी अगर अपने खेत सींचने का …
1. उत्तरी-गोलार्ध्द से दक्षिणी-गोलार्ध्द तक एक मरीचिका से दूसरी मरीचिका तक दौड़ते-दौड़ते थक चुके हैं हम प्रदूषण, अन्वेषण और अविष्कार के युग में कहीं दिखाई नहीं देती कोई निर्मल, …
किसी मन्दिर की घन्टी से डरा सहमा हुआ भगवान इक टूटे हुए वीरान घर में जा छुपेगा और पुजारी ख़ून में डूबे हुए त्रिशूल लेकर देवियों और देवताओं को …
भटक रहा है दिमाग़ मेरा मुझे मिले तो सुराग तेरा गुलाब वाले अज़ाब निकले भला भला सा था बाग मेरा मैं दिल की ऐनक उतार फेंकू मिले जो उससे …
सुनता रहता हूं किसी का मार्मिक रूदन किसी का दिल दहला देने वाला विलाप चुपचाप निकाल न पाया मैं कोई क़ीमती सामान अपनी जान बचाने की ललक या जान …
मैं देख रहा हूँ बहुत दिनों से क़ातिल का चमकता ख़न्जर ख़न्जर से टपकती लहू की बूंद और इस बूंद से माथे पर तिलक करता इतिहास धरती की कोख …
आदी हो चुके हैं ये शब्द नेताओं की भाषा बोलने के बदलते रहते हैं इनके अर्थ भी बदलते युग के साथ इनकी बदलती भाव भंगिमाओं से तंग आ चुके …
धूप आती रही इस काँच के घर में खुद ही वो गिरफ्तार हुआ मेरे असर में खुद ही तुम तो बस हाथ हिलाते हो गुज़र जाते हो शहर आ …