Author: शिवम
नट कुछ तुम्हारे सम्मुख मंच पर हाथ पसिर जुबान चलाते तो कुछ नेपथ्य में में सिर मुँह रँगे मंच पर आने के लिए तत्पर पहले से आख़िरी तक सब …
पेड़ का सच उस अमर बेल का सच नही होता जो उसके तने से लिपटकर बढ़ती है लहलहाती है उसका बढ़ना क्या लहलहाना क्या असल में उसका होना ही …
जलते तवे पर पानी छिड़क देती है रोटियाँ सेंकती औरत जीने का हुनर सीख लेती है.
दु:ख हमेशा नहीं आता दुश्मनों की दहाड़ में दोस्तों की हथेलियों की मद्धम दस्तक-सा भी छूता है द्वार कभी कभी.
हम बहेंगे हम नहीं लड़ेंगे पाप के विरुद्ध पुण्य की विजय असत्य के विरुद्ध सत्य की विजय साधने के लिए. हम नहीं अड़ेंगे पागल साँड-सी बिफरती भीड़ के सन्मुख …
उनींदी पलको में दबा हास झुकी आँखों में दबी लाज दिखा जाने को कैसा तत्पर है
कवि सुनो! जितनी कविताएँ लिखना उतने तुम पेड़ उगाना बढ़ेंगे / फलेंगे पेड़ तो रहेंगी / कहेंगी कविताएँ
सरोकार भव्यताओं के ऊपर से उड़कर आते गिद्ध मांस गंध से आकर्षित हो तुम्हारी छत पर समेटते पंख चोंच की धार परखते डुबकी लगाते आनंद सरोवरों में और पसार …
स्वर्ग तलाशते रोज़-रोज़ सिरजती है नर्क देखती है नर्क भोगती है नर्क और सिरजे हुए को / देखे हुए भोगे हुए को नकारने की सफल कोशिश पर हँसती है …
संत्रास यही कि मोह नहीं छूटता कुछ भी नहीं का
रोज़-रोज़ संगेलती है कचरा बाहर रोज़-रोज़ समेटती है कचरा भीतर एक नहीं शत-शत कंठ विषपाई नारी सदा-सदा से.
तुमने हँसी की होगी दिन भर की की उकताहट उड़ा देने को ही उधेड़कर धागे झटके से तोड़ दिए होंगें और मैंने समझा तार-तार मेरी चादर ने तुम्हें उकसाया …
आदमी का जानवर से एक क़दम आगे होना और उस होने से शाख-शाख पर रंग और गंध का धारों पर कल-कल का नींद में जागरण का मौन में मुखरता …
डोर डाली तो बिंधने को चली आईं मछलियाँ डोर खींची तो न पानी न दरिया न मछलियाँ
मुठभेड़ के बाद आसपास के सारे माहौल को उसके सारी आकांक्षाओं सफलताओं/ विफलताओं सहित जी लेने की कोशिश कोई बहुत बड़ा अभियान नहीं है अगर तुमें यह सहूलियत हो …
मस्तक पर ठुकी कील मोर हो फ़ाख़्ताओं के पैरों से नाचना बहुत कठिन है/तब और भी कठिन जब फ़ाख़्ताओं को देखते/तुम्हें सोचना पड़े कि तुम्हारे पंखों का विस्तार उचित …
पथरीली ज़मीन और धूप के बावजूद आकाश देखते हुए अंकुर सब चीज़ों का भविष्य नहीं कुछ को चाहिए बूँद-बूँद धरती चूमती बारिश का सम्बल तन सहलाती कोमल मिट्टी का …
पिता (चार) पिता ! मेरी विवशता देखो मेरे अभियान के रास्तों का पता तुम हो उन पर क़दम-क़दम बढ़ते पैरों का हौसला तुम हो और मेरी अभीष्ट भी तुम ही …
पिता (तीन) पिता ! मेरी आँखें तो खोजती रहीं केवल तुम्हें दिन ढले आँखों की फैली-फैली आँखों की लाली में दहाड़ती आवाज़ की भयावहता में माँ की पीठ पर पड़ती …
पिता (दो) पिता मैंने कल्पना की तरलता में पले/बढ़े ये स्वप्न नहीं देखे मैंने तो मध्याह्न में कागज़ की पुड़िया में लिपटी गेहूँ की साबुत रोटी पर सालन भी …
पिता (एक) पिता! मेरे कंधों पर सुर्ख़ाब के पर रख दो मैं छू लेना चाहता हूँ पहाड़ों की नर्म धूप मेरे पैरों में किश्तियाँ बाँध दो मैं पा लेना …
पहाड़ों पर बर्फ़ दिनों की गर्जन उपरान्त सहसा ही हल्के काले बादलों ने नीले आकाश को छाकर मौन साध लिया इस चुप्पी को किसी अनिष्ट का संकेत मान सहमी …
ना-समझ थी जब मीठा चटाते-चटाते मादाख़ोर चाट गया उसी को सात पर्दों में छुपाकर / दबाकर रखा माँ ने शब्द की / अर्थ की एक किरण भर रोशनी भी …
मेरा साथ तुम छोड़ दो मुझे साँप की नंगी पीठ सहलाने का मोह हो गया है
धूप के अनुरूप धूप बदलती है अपना अधिकार क्षेत्र जिसके अनुरूप बिना किसी द्वन्द्व के मैं अपना स्थान बदल लेती हूँ भ्रष्ट होते जाने की प्रक्रिया कितनी अनाम कितनी …