Author: प्रदीप मिश्र
एक समय था जब खुद से पीछे छूट जाने के भय से दौड़ते रहते थे हम और जब मिलते थे खुद से खिल उठते थे चांदनी रात में चांद …
विनम्रता और प्रेम मनुष्य का आभूषण है सुनते ही मैं विनम्र हो गया विनम्रता ने दिया शोषित होने का सुख प्रेम में सराबोर होते ही धोखा खाने के अनुभव …
माँ का आँचल था सिर पर आशीर्वाद की जगह पिता की हथेली थी दिमाग में जीवन विवेक की जगह पत्नी का समर्पण था हृदय में प्रेम की जगह भाई …
(एक) नहीं रहा अब जल गयी उसकी चिता पंचतत्व में लीन हो गया बहुत बड़ा कवि था जन कवि उसके काव्यलोक में समायी हुई है, पृथ्वी वह खुद भी …
(कवि चंद्रकांत देवताले के लिए) इतिहास की किताब की तरह पुराना और ठोस चेहरा चेहरे पर बड़ी-बड़ी आँखें इतनी बड़ी कि उनमें घूमती हुई पृथ्वी साफ दिखाई दे पसलियों …
हर शहर में पाये जाते हैं नाले बिना नालों के सम्भव नहीं है शहर जितना बड़ा शहर उतना चौड़ा नाला महानगरों के लिए नदियाँ नाला मकानों के सामने से …
(दुनियाभर के विस्थापितों को याद करते हुए।) (एक) – घर जब भी कोई जाता लम्बी यात्रा पर घर उदास रहता उसके लौटने तक जब भी उठती घर से बेटियों …
यहाँ से हर राह गुजरात की तरफ जा रही है कभी यहीं से सारी राहें मेरठ गयीं थीं कभी अयोध्या तो कभी अलीगढ़ और मुरादाबाद हर जगह जातीं हैं …
नींद उस बच्चे की जिसे परियाँ खिला रहीं हैं मुस्कान उसके चेहरे पर सुबह के क्षितिज की तरह फैली हुई नींद उस किशोर की जिसकी प्रेमिका सपने में भी …
पैदा हुआ हिन्दू जाति में इसलिए मेरी आस्था में सबसे पहले ईश्वर को स्थापित किया गया सर्वशक्तिमान है ईश्वर ईश्वर की ईच्छा के विरूध कुछ भी संभव नहीं है …
(एक) एक काठ की आलमारी में बहुत सारी किताबें हैं किताबों में बहुत सारे पन्ने पन्नों पर वाक्यों का मुहल्ला मुहल्ले में अनन्त विचार विचारों में भावों का समुन्द्र …
हम भी बच्चे तुम भी बच्चे क्या हममें तुममें भेद भेद बहुत है हममें तुममें सुन्दर कपड़े , अच्छा खाना बढ़िया सा स्कूल पढ़ लिखकर तुम आगे बढ़ते हम …
उनके पास कमजोर नसों की सूची होती है उनकी ही भाषा में सारे धर्मग्रन्थों का अनुवाद होता है विचारों के जीवाश्मों को खोद-खोदकर वे अपने लिए खोह बनाते हैं …
इकट्ठे हुए थे सारे जीव एक जगह फुनगी पर बैठी चिड़िया / गर्वोन्नत शेर रेत में अलसाया मगरमच्छ इधर-उधर रेंगते कीड़े-मकोड़े हरी कालीन जैसी बिछी घास और टीले पर …
एक बार फिर किसी आकाशीय पिंड के हृदय में सृजन की ऊष्मा इतनी तीव्रता से उफने कि फटकर बिखर जाय वह पूरे अंतरिक्ष में जिस तरह से किसान बिखेरता …
हँसना चाहता हूँ इतनी जोर की हँसी चाहिए जिसकी बाढ़ में बह जाए अन्दर की सारी कुण्ठाएं रोना चाहता हूँ इतनी करुणा चाहिए कि आँसुओं की नमी से खेत …
एक ने जूठन फेंकने से पहले केक के बचे हुए टुकड़े को सम्भालकर रख लिया किनारे दूसरा जो दारू के गिलास धो रहा था खंगाल का पहला पानी अलग …
बच्चों की मुस्कान को किसान के खलिहान को औरतों के आसमान को चिड़ियों की उड़ान को दे रहा हूँ शुभकामनाएँ देश के विधान को संसद के ईमान को जीवन …
भय से थरथराती हुई आँखों में कई रात गुजारने के बाद बारूद में भुने हुए बच्चों के हाथ-पांव समेट रहे हैं गुजरात के नन्हे मियाँ पिछली चार पीढ़ियों से …
दु:खी मन पर होता है इतना बोझ सम्भाले न सम्भले इस धरती से हवा ले उड़ना चाहे तो फिस्स हो जाए और आकाश उठाने का कोशिश में धप्प् से …
सन् उन्नीस सौ सैंतालिस महीना अगस्त का जब मैं छूटा था रक्तिम पंजों से और आजादी की हुलास में उड़ता ही चला गया उड़ान देखकर दंग था आसमान …
सूरज की नन्हीं किरणें उतर आयीं हैं चेहरों पर दरारों से आती हवा फेफड़ों में ताकत की तरह भर रही है खेतों की तरफ जा रहे हैं किसान त्यौहारों की तैयारी कर रहा है गाँव कारखानों से चू रहा है पसीना चूल्हों को इतमिनान है अगले दिन की रोटी का टहलकर घर लौट रहे हैं पिताजी सुबह की चाय के साथ अखबार बेहतर दिनों के स्वाद की तरह लग रहा है कलम के आस-पास जुटे हुए हैं अक्षर प्रेम कविता के लिए आग्रह कर रहे है लिखता हूँ प्रेम और खत्म हो जाती है स्याही।
हाड़तोड़ मेहनतकर जब पस्त हो लौटते घर मिलतीं एकदम हँसती–बिहँसती उतर जाती सारी थकान परोसतीं गर्म–गर्म रोटियाँ और चुट की भर नमक इस नमक के साथ उनका प्रेम …
पेड़ पौधों से करोगी तुम प्यार वे विफल कर देंगे प्रदूषण का षडयन्त्र घर से करोगी तुम प्यार भूलकर अपने सारे दुःख खुश हाल हो जाएगा घर …
सदियों से मैदानी नदी की तरह बहती हुई शांत और सहनशील लड़कियों को अब हरहराती हुई पहाड़ी नदी की तरह भी बहना चाहिए।