Author: pankaj kumar sah
जब घर में अँधेरा छाता है चाँद भी मुँह फेर जाता है लोगों के ताने को सुन सूरज उगने से घबराता है जब रोज-रोज की बदहाली से घर …
आइये हम सब मिलकर रोते है भारत में फैले भ्रष्टाचार पर भारत में किसानो की हत्या पर आइये रोते हैं सुरसा के मुंह की भांति फ़ैल रही …
तेरी चाहतों को अपने दिल में दबाकर तेरी यादों को अपना बनाए हुए हैं अरे बेखबर जरा देखो इधर भी तुम्हारे ही गम के सताए हुए हैं …
मैं क्या कहूँ मैं क्या करूँ क्या मैं ये कहूँ की तुम बहुत बुरी थी बेवफा थी धोखेबाज थी तो सुन लो मैं नहीं कह सकता, क्या मैं ये …
आज दिल फिर रो रहा है जैसे कोई अपनों को खो रहा है उजड़ गई हैं बस्तियां जिनकी वो आज तिनके फिर ढो रहा है लहूलुहान हो …
दीये सा जलता हूँ मैं हवाओं सा बहता हूँ मैं नफरत सा पैदा होता हूँ प्यार सा बढ़ता हूँ मैं अपनों की फ़िक्र है मुझे इसलिए इर्ष्या …
मैं ढूंढता रहा हूँ अब तक कहाँ हो तुम आओ चलें कहीं किसी ओर किसी आकाश के नीचे किसी बदल के पीछे आओ मुहब्बत हमेशा जिन्दा रहती है इस …
पता नहीं कब बड़ी हो जाती हैं बेटियाँ जैसे बड़े होते हैं पेड़ बड़े होते हैं दिन बड़ी होती हैं रातें पता नहीं कब ओढ़ लेती …
अभी कल परसों की ही बात है हिन्दी दौड़ती-हाँफती दिल्ली पहुंची अपने आकाओं के पास, पसीने से तर-बतर होकर हाथ जोड़कर लड़खड़ाती आवाज़ में कहती है – मेरे आका …
माँ दर्द है माँ जख्म है माँ दिन है माँ रात है माँ सूर्य है माँ चाँद है घटाओं में माँ हवाओं में माँ आकाश में माँ पाताल में …
रोते रहे हम याद में उनके वो करवट बदल कर सो गए ढूंढते रहे हम उन्हें खाबों में ना जाने कहाँ वो खो गए फ़कत गुजरे थे …
मेरे आँखों में आँसू भर आए जब हीना लगी तेरे हाथों में किसने जाना कल क्या होगा कुछ कमी रही जज्बातों में काँप गए रूह तक भी …
आज फिर माँ के हाथों जल गई एक रोटी, खीझ उठी माँ जली हुई रोटी को तवे से पटकते हुए बोली- इतनी सावधानी के बावजूद आज फिर जल गई …
माँ तुझे धन्यवाद बहुत-बहुत धन्यवाद मुझे दुनिया दिखाने के लिए, मैं तो डर ही गई थी जब पता चला की जाने वाली हूँ दुनिया से मैं दुनिया में आने …
आज अचानक तुम्हारी याद आई मेरे कानों ने तुम्हारे गीत सुने मेरी आँखे भर आयी सोचा बादलों से कुछ गुफ्तगू कर लूं तुम्हारे लिए लेकिन वो भी औरों की …
वो कहती है जलती रही हूँ वर्षों से आगे भी जलती रहूँगी तब तक जब तक की खाक ना हो जाऊँ ताकि उसके बाद भी काम आ सकूँ और …
कभी -कभी असमय ही बन पड़ती हैं कविताएँ शब्दों के बाढ़ उमड़ पड़ते हैं जेहन में काफी तीव्र हो जाती है सोचने की शक्ति कभी -कभी तो सोच में …
तुम्हे तो हर रोज भीगना होता है हर रोज सहना होता है अनचाहे स्पर्श को, हर रोज सामना होता है दैत्यों से, मैं पूछता हूँ कि आखिर कब तक …
माँ को मालूम नहीं है की लिख चुका हूँ कितनी ही कविताएँ उसके नाम से, उसे तो यह भी मालूम नहीं की वो मेरी कविताओं में ना होकर भी …
आदिवासी तुम भी हो वो भी हैं, उनके यहाँ घूमते हैं ब्रांडेड पंखे और तुम घुमाते हो ताड़ के पंखे, उनके यहाँ बिजली बत्तियों की चकाचौंध है तुम्हारे यहाँ …
माँ क्या हो तुम..? जेठ की चिलचिलाती धूप हो या सावन की रिमझिम फुहार, अनवरत बहने वाली गंगा हो या किसी झील का शांत स्थिर जल माँ क्या हो …
एक दिन मैं कविता लिखने बैठा की अचानक कहीं से कविता आ धमकी, बोली- क्या कर रहे हो..? मैंने कहा तुम्हारी रचना कर रहा हूँ तुम्हे नया रूप दे …
जब तुम थी और मै भी था हवाएँ काफी सर्द थी और आज पता नहीं हवाओं को क्या हो गया है कितने ही घरों को खाक कर डाला इसने..
जब वो नए पत्तों से भर देता है पूरे पेड़ को , तभी वो आकर सारे पत्तों को नोच डालता है मानो उसे ठूँठ की जिंदगी ही पसंद हो …
तुम मुझे बांधती गयी और मैं बंधता गया बिना किसी हिचकिचाहट के, फिर अचानक एक दिन चौंक उठा मैं लगा जैसे, अभी-अभी तन्द्रा टूटी हो मेरी मैं पूछ बैठा …