Author: mithilesh2020
‘चिराग’ उन्हें फीका लगा होगा हमने जो ‘दीपक’ जलाया अभी खुशियाँ भी कुछ कम लगी होंगी खुल के हम जो ‘मुसकराये’ अभी गफ़लत में थे देख परतें ‘उदास’ आह …
चादर तान कर किसको सोना अच्छा नहीं लगता अधखुली आँख से तब और सपने बेहतर से दिखते हैं कुछ-कुछ ‘दिवा-स्वप्न’ से आह! मगर ज़िन्दगी के थपेड़े जगाते हैं, झिंझोड़कर …
कल वो घर ख़राब हो गया, जहाँ हम जन्मे, क्योंकि हम ज्यादा बड़े हो गए कल वो गाँव ख़राब हो गया, जहाँ हम पले, क्योंकि हम ज्यादा सभ्य हो …
कैसा लगता है जब पहली बार आठवीं में घर छोड़कर हॉस्टल गया भूला नहीं कुछ अलग ही लगा जब पहली बार अकेले गया देखने सिनेमा डरते-डरते भूला नहीं …
सुबह निकलने से पहले ज़रा बैठ जाता उन बुजुर्गों के पास पुराने चश्मे से झांकती आँखें जो तरसती हैं चेहरा देखने को बस कुछ ही पलों की बात थी …
तोड़ दे हर ‘चाह’ कि नफरत वो बिमारी है इंसानियत से हो प्यार यही एक ‘राह’ न्यारी है बंट गया यह देश फिर क्यों ‘अकल’ ना आयी रहना …
क्षुद्र हूँ ब्राह्मण, क्षत्रिय वाला नहीं व्यवहार में उग्र हूँ मुर्ख हूँ ज्ञान, विज्ञान वाला नहीं अहम् कूप का मण्डूक हूँ अयोग्य हूँ धन, क्षमता वाला नहीं स्वार्थ प्रेरणा …
गणवेश वाले का निवेश- निवेश चिल्लाना अब देश को ‘अख़र’ रहा है। हमारे परिवेश पर फिरंगी का हंसना बिहसना सदियों से हर ‘पहर’ रहा है। व्यवसाय के रास्ते आना …
चलना होगा, साथ साथ हमें चलना होगा स्व-अहम को छलना होगा रूठों के पाँव में पड़ना होगा ऊँच-नीच, भेद-भाव, जात-पात को तजना होगा जगना होगा सुबह सुबह हमें जगना …
बातें करते हैं लोग यहाँ जीते-मरते रहे लोग यहाँ निज प्राण दिया परमारथ में है धर्मवीर कोई और कहाँ गुरुओं का मान रखा जिसने इस हिन्द की शान …
कुत्ते लड़ रहे थे रात को शहर के कुत्ते दूर से दौड़ कर आये वे गलियों के कुत्ते और हो गए गुत्थमगुत्था गुट बनाकर कुछ दुबले थे कुछ मोटे …
हिन्दी हिन्दी मच रहा, चारों ओर अब शोर लगने लगा है हो रही, भाषा की अब भोर भाषा की अब भोर, ‘मोर’ नाचे बरसाती अंग्रेजी में आ रही, हिन्दी …
सुबह-सुबह जब आज जगा था सर्दी से सूरज भी डरा था कल की रात न सोये हम सब ‘न्यू ईयर’ का रतजगा था ठंडी में खूब शोर मचाकर …
बूढा, निःशब्द घायल, कुछ कर न पाने की बेबशी में आहत सा पर कट गए, वह गिर गया उस घाव पर गाढ़ा रुधिर जम गया क्षत-विक्षत हो गए अंग …
सड़क के किनारे बैठा मैं देख रहा था बरसात की फुहारें लोग भाग रहे थे मानो भीग कर पछता रहे थे रुकने का नाम नहीं था शायद, जल्दी कोई …
बेटा, आज तो रुक जा अभी तो आया है, अब जा रहा है माँ बोलीं पिछली बार भी तू न रुका था तब मेरा मन खूब दुखा था उन्हें …
दादी – दादी मुझे पढ़ाओ, ढेरों फिर तुम बात बताओ खेलो दिन और रात मेरे संग करूँगा तुमको जी भर के तंग मम्मी सुबह जगाती है, फिर मुझको …
पत्नी, प्रिये, अर्धांगिनी और धर्मपत्नी सदृश अगणित नाम जीवन संतुलन, उत्थान और सृष्टि की कथा रचना उनका काम सुख दुःख, संयोग वियोग और रुचि अरूचि में चलती हैं अविराम …
बैठ गया ब्लू लाइन मेट्रो पर सुबह-सुबह जाना था आगे पहुंचे स्टेशन पर भागे-भागे लम्बी लाइन लगी थी सबको ही जल्दी थी टोकन के लिए आगे खिसके लाइन में …
डर लगता है मुझे ही नहीं सबको क्योंकि, ऐसा कोई बचा नहीं ‘मच्छर’ ने जिसको डंसा नहीं जी हाँ! एक ऐसा प्राणी जो कभी भेदभाव नहीं करता अमीर-गरीब, युवा-बुजुर्ग, …
न भ्रष्टाचार खतरा है न अत्याचार खतरा है ऊंच- नीच, भेदभाव ने भारत का ‘पर’ कतरा है ——————— न कोई हिन्दू खतरा है न मुसलमान खतरा है हज़ारों साल …